लिंसा-चिकोरी (भाग २)

एक अपराध गाथा



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वह लड़का जो कुछ देर पहले तक उज्वला प्रियदर्शी के साथ बैठा हुआ था, दोनों साथ ही सरोजिनी नगर उतरे थे। लेकिन’ अचानक ही उज्वला ने अपना रास्ता बदल लिया, जिसके कारण उसका तादात्म्य टूट सा गया। हां, उसने बस में भरपूर कोशिश की थी कि” उसके साथ बातों का सिलसिला शुरु कर सके, परंतु….ऐसा संभव नहीं हो सका था। क्योंकि’ उज्वला ने उसको भाव ही नहीं दिया था।
उसके द्वारा की गई लच्छेदार बातें और हाव-भाव के द्वारा भावुक प्रदर्शन, परंतु…उसकी सारी कोशिशें धरी की धरी रह गई। इसलिये धरी रह गई कि” उज्वला ने सफर के दौरान खुद को किताब में कैद कर लिया था। परंतु…वह लड़का, जिसका नाम अमोल परासर था, शांत स्वभाव का तो बिल्कुल भी नहीं था। हां, अगर यह कहा जाए कि” वह फलर्टिंग करने में मास्टर था, तो शायद उसके लिए उपयुक्त होगा। क्योंकि’ जैसे ही वह किसी सुंदरी को देखता था, अपने जादू के जाल को फैलाने में लग जाता था।
किन्तु” आज तो उसने हद ही कर दी थी। उसने वो तमाम कोशिश किए थे, जिससे कि” उज्वला प्रियदर्शी के करीब पहुंच सके। उसे अपने मन की भावनाओं को बतला सके, उसे उसके सुंदरता का एहसास करवा सके और चालाकी से उसे अपने शीशे में उतार सके। परंतु….उसके सारे प्रयास असफल हो गए। यहां तक कि” वह उज्वला का नाम तक नहीं जान सका।
ऐसे में हैरान-परेशान बना हुआ अपने घर की ओर बढ़ गया, क्योंकि’ उज्वला प्रियदर्शी अपने रास्ते जा चुकी थी। ऐसे में वह शहर की गलियों में अपने कदम बढ़ाए जा रहा था। दोनों ओर बनी हुई ऊँची-ऊँची बिल्डिंग, जिसके बीच जाती हुई संकरी सी पक्की सड़क, जिस पर वह अपने कदम बढ़ाए जा रहा था, मन को ढ़ाढ़स बंधाता हुआ, खुद को समझाता हुआ कि” पहली बार ही तो असफल हुआ हूं। फिर से प्रयास करूंगा और संभव हैं कि” इस बार उस युवती के करीब जाने में सफल हो जाऊँ।
हां, मन के भाव, जो कि” कभी-कभी ढ़ृढ़ता के रूप में उसके चेहरे पर झलक जाते थे। वैसे, उसका स्वभाव भी ऐसा नहीं था कि” हतोत्साहित हो जाए, किसी भी चीज से इतनी जल्दी हार मान जाए और अपना राह बदल ले। मतलब कि” वह ऐसा बिल्कुल भी नहीं था, जो किसी भी परिस्थिति में घबरा जाए। वह तो ऐसा था, जो जब तक मंजिल तक पहुंच नहीं जाए, दम ही नहीं ले।
हां, वह एक तरह से आत्माराम की तरह था, निज स्वभाव में मस्त रहने बाला। अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए परिस्थिति से टकरा जाने बाला। तभी तो’ बढ़ते हुए कदम के साथ ही उसके दिमाग में विचारों का झंझावात भी बढ़ रहा था। जिसका सार बस इतना ही था कि” किसी भी तरह से उस सुंदरी के करीब जाना और अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसको अपने शीशे में ढ़ाल लेना।
वैसे’ उसको अपने वाक्पटुता पर पूरा भरोसा था। जानता था, आज तक उसने जितने भी प्रयास किए हैं, उसमें सत-प्रतिशत सफल ही हुआ हैं। तो उस युवती के मामले में धोखा खा जाए, ऐसा संभव ही नहीं हो सकता। बस’ प्रयास भर ही तो करना हैं और प्रयास करने का कुछ न कुछ परिणाम तो निकलेगा। मानो कि” परिचय ही हो जाए, इसके बाद संबंध भी स्थापित हो ही जाएगा।
वैसे भी, जीवन की सीढ़ियां एक-एक करके ही तो चढ़ी जाती हैं। ऐसे ही तो नहीं कोई सीधे सफलता के शिखर पर ही चढ़ जाता हैं। मतलब कि” मन में आशाओं के दीप को हमेशा प्रज्वलित रखना चाहिए। क्या पता, कब और कैसे सफलता के दरवाजे खुल जाए और सफलता मिल जाए। पता नहीं कब जीवन के आँगन में खुशियों की बौछार होने लगे और मन की मुराद पूरी हो जाए।
इन तमाम बातों को सोचते हुए आगे की ओर कदम बढ़ता हुआ वो। वैसे भी, शाम के चार बज चुके थे, इसलिये वातावरण में धूप की तीखाश कुछ कम हुई थी। परंतु….इतनी धूप में भी वह पसीने से पूरी तरह लथपथ हो गया था। परंतु….न तो उसके गति में कमी आई थी और न ही उसके चेहरे पर नाम मात्र का शिकन भी था। तभी तो वह निरंतर ही आगे की ओर कदम बढ़ाए जा रहा था।
परंतु….जैसे ही जगदंबा अपार्ट मेंट आया, उसके कदम अचानक ही ठिठक गए। इसके साथ ही वह अपार्ट मेंट के गेट की ओर बढ़ गया। फिर तो’ उसने जैसे ही अंदर हाँल में कदम रखा, चौंक उठा, क्योंकि’ अंदर हाँल में सोफे पर एक बीस वर्ष की सुंदर युवती बैठी हुई थी और लैपटाँप चला रही थी। अब इस समय उस युवती का उसके घर में होना, उसके लिए आश्चर्य से कम नहीं था, तभी तो सहसा उसके मुख से निकला।
अरी आभा कादरान!....इस समय तुम यहां?
हां अमोल परासर!....लेकिन’ तुम इस तरह से चौंककर मुझसे प्रश्न क्यों पुछ रहे हो?....क्या तुम्हें मेरा यहां पर आना अच्छा नहीं लगा?....अगर ऐसी बात हैं तो स्पष्ट बतला दो, मैं अभी के अभी चली जाऊँगी।
उसकी बातों को सुनते ही वह सुंदरी बोल पड़ी। हां, वह सुंदरी ही तो थी, आकर्षक व्यक्तित्व, गठा हुआ शरीर, उभड़े हुए नितंब और उन्नत वक्ष-स्थल। उसपर रेशमी बाल और गोल चेहरा, साथ ही तीखे नैन-नक्श, जो कि” सहज ही किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर ले। हां, वह वास्तव में सुंदरी थी, जिसको देखकर एकबारगी तो किसी का भी ईमान डोलने लग जाए। उसपर उसके कंठ से निकला हुआ मधुर स्वर, जो कि” इस समय अमोल परासर को चुभ सा गया था, तभी तो हड़बड़ा कर बोला।
अरे नहीं आभा!....तुमने जो कहा, ऐसी कोई बात नहीं हैं। बस’ तुम्हें अचानक ही यहां पर देखा, तो चौंक गया। उसकी बातों को सुनते ही वह बोल पड़ा। फिर एक पल के लिए रुका और उसकी आँखों में देखने लगा, मानो कि” उसके चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रहा हो। परंतु….जब इस काम में असफल हो गया, एक पल के लिए उसका दिमाग भन्ना गया। लेकिन’ दूसरे ही पल उसने खुद को संभाल लिया और बोल पड़ा।
अब तुम भी न, बात-बात पर टेंशन लेने लगती हो। ऐसे तुम अभी बैठो, मैं अभी किचन में जाकर काँफी बनाकर लाता हूं। कहा उसने और फिर अपने कदम किचन की ओर बढ़ा दिए। जबकि’ वह सुंदरी फिर से लैपटाँप में उलझ गई।
धीरे-धीरे आगे की ओर बढ़ता हुआ समय और अपने काम में लगी हुई वो। उस आधुनिक ढंग से सजाए गए हाँल में इस समय सन्नाटा पसरा हुआ था, जिसे अमोल के पदचाप की आवाज ने तोड़ दिया। हां, वो किचन से काँफी का दो कप थामे हुए लौटा था। धीरे-धीरे आगे बढ़ता हुआ वो, जैसे ही सुंदरी के करीब पहुंचा, बहुत ही संयमित स्वर में उससे बोल पड़ा।
लो आभा!....काँफी पीयो।
आवाज हुई और आभा कादरान की तंद्रा टूट गई। फिर उसने सिर उठाकर अमोल की ओर देखा और मुस्करा पड़ी। करीब दो पल तक मुस्कराती रही। जबकि’ उसे इस तरह से मुस्कराता हुआ देखकर अमोल हक्का-बक्का रह गया। जबकि वो’ उसके चेहरे पर हैरानी के भाव को देखकर बोली।
अमोल!....मसका लगाना तो कोई तुमसे सीखे।
तुम ऐसा क्यों बोल रही हो?....उसकी बातें सुनकर हैरानी में डूबे हुए स्वर में बोल पड़ा अमोल। जबकि’ उसकी बातों को अनसुनी कर के आभा बोल पड़ी।
खैर’ अभी इन बातों को जाने दो। तुम तो मुझे बस इतना बतला दो कि” जिस काम के लिए गए थे, कर पाए या नहीं?
नहीं कर पाया!....हलांकि” मैंने काँफी कोशिश की, परंतु….सफल नहीं हो पाया। उसके प्रश्न सुनते ही बोल पड़ा वो। जबकि’ अभी तो उसकी बातें पूरी भी नहीं हो पाई थी कि” आभा कादरान ने उसकी आँखों में देखा और रूक्ष स्वर में बोल पड़ी।
तुम भी न, बातें तो बड़ी-बड़ी करोगे, परंतु….एक भी काम सही से नहीं कर पाते हो। कहा उसने और फिर अमोल के हाथों से कप ले लिया और काँफी पीने लगी। जबकि’ उसकी बातें सुनकर अमोल निराश मन से उसके करीब ही बैठ गया। हलांकि’ वह काँफी जरूर पी रहा था, परंतु…उसका मन, जो कि” आभा के तिलस्मी जिस्म में ही उलझा हुआ था। इस आशा के साथ कि” कहीं आज की शाम रंगीन हो जाए।
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सुबह सूर्य की किरणों ने धरती के आँचल को छूआ और पूरा प्रकृति खिल उठा।
हां सुबह के आगमन के साथ ही चिड़ियों के कलरव से आकाश का आंगन गुंज उठा। लगा कि” प्रकृति जाग चुकी हैं और अब अपना सोलह शृंगार कर रही हैं। साथ ही होते सुबह के साथ ही शहर भी जाग चुका था और अपना आलस त्याग कर अंगड़ाई लेकर फिर से लंबी दौड़ लगाने के लिए तैयार हो चुका था।
हां, एक नवीन उद्देश्य के साथ शहर के निवासी, जो कि” शहर के प्राण थे, अपने दैनिक दिनचर्या पर निकल चुके थे। हां, रोजी-रोटी की तलाश होते हुए सूर्योदय के साथ ही फिर से शुरु हो चुकी थी। वैसे भी, शहर की तो प्राथमिकता ही यही हैं, नहीं तो भूखों मरने की नौबत आ जाए। वैसे भी बातों से पेट नहीं भरता, इसलिये शहर के लोग सुबह होने के साथ ही घर से निकल जाते हैं और अपने लिए रोजी-रोटी का उपाय करने लगते हैं। एक लंबी भागदौड़, जो सूर्य के उदित होने के साथ ही शहर में शुरु हो जाता हैं, जो निरंतर ही चलता रहता हैं। तब तक चलता रहता हैं, जब तक कि” रात की गहरी चादर शहर को अपने आगोश में न ले-ले।
हां, यही शहर की तासीर हैं, जो निरंतर ही कार्यरत रहता हैं। जिसका उस भव्य बिला में भी असर दिख रहा था। संजीवनी बिला, काफी विशाल क्षेत्रफल में फैला हुआ। जिसकी ऊँची बाऊँड्री बाल, जिसके अंदर करीने से सजाया हुआ गार्डेण, जिसके अंदर विभिन्न प्रकार के विदेशी पौधे विराजमान थे। जिसे इस वक्त दर्जनों की संख्या में हवेली के नौकर सजा रहे थे, उसकी निकाई-गुराई कर रहे थे और पौधों में पानी दे रहे थे। उधर बीच में बड़ा सा स्वीमिंग पुल और आगे विशाल भव्य बिल्डिंग। 
हां, यह बिला रघुनाथ प्रियदर्शी का था। एक समय के बिजनेस टायकुन कहे जाने बाले रघुनाथ प्रियदर्शी, स्वभाव से मृदुल और मिलनसार। छ फूट के रघुनाथ प्रियदर्शी, सिर पर सफेद बालों का गुच्छ, आँखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा, एवं तीखे नैन-नक्श। हलांकि’ बुढ़ापा ने उनपर असर कर दिया था, उसपर बेटे और बहूं के एक्सीडेंट में मारे जाने से वो बुरी तरह टूट गए थे। फिर भी उनके व्यक्तित्व में वह आकर्षण बचा हुआ था, जो किसी को भी अपनी ओर सहज ही आकर्षित कर ले।
उसपर उनका कर्मशील स्वभाव और धैर्यशील व्यक्तित्व, तभी तो उदित हुए सूर्य के साथ ही वह बिल्डिंग के बाहर आ गए थे और नौकरों के साथ काम में लगे हुए थे। वह इस बात को भूला कर कि” अभी भी अरब पति हैं, नौकरों के साथ बगीचे की साफ-सफाई में जुटे हुए थे, पौधों को पानी पिला रहे थे और नौकरों को निर्देशित भी करते जा रहे थे कि” इस तरह से काम करो। 
धीरे-धीरे आगे की ओर बढ़ता हुआ समय और अपने काम में लगे हुए रघुनाथ प्रियदर्शी। तभी बिल्डिंग का गेट खुला और उसमें से उज्वला प्रियदर्शी निकली, हाथ में काँफी का कप थामें हुए। फिर वो धीमे कदमों से आगे बढ़ी और उनके पास पहुंच कर मधुर स्वर में बोल पड़ी।
शुभ प्रभात दादाजी।
बस’ रघुनाथ प्रियदर्शी का हाथ थम सा गया। साथ ही उन्होंने सिर को उठाकर देखा और उसके चेहरे को देखकर मुस्करा पड़े। इसके साथ ही उठकर खड़े हो गए और हाथों को आपस में रगड़ कर झार लिया और उसके हाथों में से एक कप पकड़ लिया और उसकी आँखों में देखकर बोले।
शुभ प्रभात बेटा।….वैसे’ तुम सुबह-सुबह ही तैयार हो गई, क्या कोई बात हैं?....कहा उन्होंने और प्रश्न पुछने के बाद उसके चेहरे पर नजर टिका दी। सौम्यता से भरा हुआ दैदीप्यमान चमकता हुआ चेहरा, उनकी बातों को सुनने के बाद सहज ही मुस्करा उठा। फिर उज्वला ने उनकी आँखों में देखा और कुछ पल सोचती रही। इसके बाद उन्मुक्त स्वर में बोल पड़ी।
दादाजी!....आप भी न, जल्दी ही कोई बात भूल जाते हैं, तभी तो आप पुछ रहे हैं। जबकि’ मैंने आपको कल ही तो बताया था कि” कंपनी के काम के सिलसिले में मुझे आज सुबह ही जाना हैं। क्योंकि’ बावला ग्रुप के चेयर मैन रंजित बावला ने मुझे कंपनी में मिलने के लिए बुलाया हैं।
तुम भी न बेटा। मैंने कितनी ही बार कहा हैं कि” इस तरह से श्टार्टअप का विचार त्याग दो और कंपनी का काम संभाल लो। क्योंकि’ मैं अब दिनों-दिन बुढ़ा होता जा रहा हूं। अब ऐसे में मैं चाहता हूं कि” कंपनी के कामों से सन्यास लेकर चैन से आराम की सांस लूं। उसकी बातें सुनकर बोल पड़े रघुनाथ प्रियदर्शी। फिर हाथ में पकड़े हुए कप को होंठों से सटा लिया और काँफी के घूंट भरने लगे। लेकिन’ उनकी नजर उज्वला के चेहरे पर ही टिकी हुई थी। जहां पर उनकी बातों का गहरा प्रभाव हुआ था।
हां, उनकी बातों को सुनने के बाद उज्वला तनाव में आ गई थी। तभी तो वह गहन विचार मंथन में फंस गई थी, साथ ही दादाजी के चेहरे पर नजर भी टिकाए हुए थी। शायद’ इसके बाद बोलने के लिए शब्दों को ढ़ूंढ़ रही थी। ऐसे में कुछ पल ऐसे ही गुजर गया, तब वो बोली।
दादाजी!....आप तो जानते ही हैं, मैं बिजनेस टायकुन बनना चाहती हूं। फिर तो’ आपकी कंपनी को तो कभी भी संभाल सकती हूं। लेकिन’ जब तक फ्री हूं, मुझे सपनों को साकार करने का अवसर जरूर दीजिए।
ठीक हैं बेटा। जानता हूं, तुम बचपन से ही जिद्दी हो और जो तुमने सोच लिया हैं, वही करोगी। वैसे’ जाते वक्त मर्सिडीज लेते जाना, नहीं तो कल की तरह हा बस’ में सफर मत करने लगना। उसकी बातों को सुनकर बोल पड़े रघुनाथ प्रियदर्शी। फिर उन्होंने खाली हो चुके कप को उसके हाथों में थमा दिया।
नहीं दादाजी!....मैं कार लेकर नहीं जाऊँगी। वैसे भी, मुझे समझना हैं, साधारण वर्ग के उद्यमी को श्टार्टअप करने के लिए किन-किन दिक्कतों का सामना करना पड़ता हैं। कहा उसने और जैसे ही बिल्डिंग में वापस जाने के लिए मुड़ने को हुई, चौंक गई।
क्योंकि’ गेट से अमोल परासर ने प्रवेश किया था। अब भला उज्वला उसको कैसे भूल सकती थी, क्योंकि’ सफर के दौरान उसने जो बेतुकी हरकत की थी, उससे परेशान हो गई थी वो। तभी तो उसको गेट से अंदर कदम रखते देख कर आश्चर्य में डूब गई वो। उसकी नजर अमोल परासर पर ही टिक गई। उधर इन बातों से बेखबर बना हुआ अमोल परासर आगे बढ़ा और उसके करीब पहुंच गया।
अरे!....तुम कैसे लिज्झर इंसान हो, जो बात को नहीं समझते। तभी तो पीछा करते हुए यहां भी पहुंच गए। उसके करीब पहुंचते ही रुक्ष स्वर में बोल पड़ी उज्वला। परंतु….उसकी बातों का अमोल परासर पर कोई असर नहीं हुआ। वह तो उसके चेहरे को देखकर इस तरह से मुस्कराता रहा, जैसे बेशर्म हो। हां, उसका इस तरह से बात करना रघुनाथ प्रियदर्शी को जरूर बुरा लगा था, तभी तो वे बोल पड़े।
अरी उज्वला बेटा!..घर आए हुए मेहमान से इस तरह से बात नहीं करते। इसलिये आगंतुक को अंदर लेकर जाओ और इनका उचित स्वागत सत्कार करो।
कहा उन्होंने, फिर अपने काम में लग गए। जबकि’ उज्वला, उसके मन में इच्छा हुई कि” दादाजी को आगंतुक के कारस्तानी के बारे में बतला दे। परंतु….अचानक ही उसने अपने मन के विचार को बदल लिया और बिल्डिंग के अंदर की ओर बढ़ गई। साथ ही अमोल परासर भी उसके पीछे-पीछे चल पड़ा, उसको अनुसरण करता हुआ। किन्तु’ स्वभाव बस वह अपनी जुबान को नहीं रोके रख सका और बोल पड़ा। 
उज्वला जी!...अब तो मैंने आपका नाम भी जान लिया। अब समझता हूं कि” हम लोग आपस में घुल-मिल जाए, तो बेहतर हो।
लेकिन क्यों?...भला, मैं तुम्हारे साथ क्यों घुल-मिल जाऊँ और इससे मुझे क्या फायदा होगा?....हाँल में कदम रखते ही उज्वला ने पलट कर उसकी ओर देखा और तीक्ष्ण स्वर में बोल पड़ी। जबकि’ हाँल में कदम रखने के साथ ही अमोल एक पल के लिए वहां की भव्यता को देखकर अचंभित हो गया और आँखें फाड़-फाड़ कर चारों ओर देखने लगा। 
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क्रमश:-

Category:Literature



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Written by मदन मोहन" मैत्रेय

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