याद आते हैं वे दिन
लिखते थे चिट्ठियां हाथों से,
प्रेम और स्नेह की सुगंध…
रहती थी उन कागजों में।
एक एक शब्द हर्षित करता,
समाहित था अपनत्व का भाव,
आज मोबाइल है हाथों में
बात हो जाती दूर तक
लेकिन वो आनंद नहीं,
जो रहता था पत्रों में।
अब नहीं दिखता…
बारिश का वो बचपन,
जिसमें खेलते थे बच्चे,
चलाते थे कागज की नाव
प्रफुल्लित चेहरे के साथ।
अब ये भी नहीं दिखता…
मास्टर जी का वो खौफ,
जिसमें शब्द थे सुधार के,
देते थे भारत का संस्कार…
उसका भी एक आनंद था।
आज सब कुछ तो है…
लेकिन वो आनंद नहीं है,
वो अनआपन भी नहीं है।।
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