अतीत की कुछ तस्वीरें मेरी नम आखों के सामने कुछ यूँ गुजरी... अम्मा की होली पर पकवान बनाती , सजाती, खुशियाँ बिखेरती ... तो कभी सूर्य आराधना का पवित्र छठ पर्व पर भगवान भास्कर को अर्घ्य देती अम्मा , कुर्जी घाट की भीड़
पनीली आंखे, भटकता मन सूक्ष्म पलों के लिए मुस्कुरा दिया, ज़ब पापा की वो तस्वीर सामने आई जों उनके लाल मंजन की मात्रा को यादों के पिटारे में बंद करने के लिए ली गई थीं |
पल -पल रंग -रूप और माहौल बदलती तस्वीरें यादों के भॅवर में मुझे डुबोने लगी |
अंतर्मन में गीत बजने लगा --
"भूली हुई यादों, मुझे इतना ना सताओ,
अब चैन से रहने दो, मेरे पास न आओ | "
बेचैन मन को राहत देने के ख्याल से मैं एल्बम को बंद करके अलमारी मे रखने लगी तभी कुछ कार्ड नीचे गिर गये | जमीन पर गिरी उन तस्वीरों में भूली बिसरी गायत्री दीदी मुझे गोद में लिए ख़डी थी |
सांवला रंग , भरा -पूरा शरीर और तीखे नैन-नक्श की गायत्री दीदी अपने नाम के अनुरूप गायत्री थी, पढ़ाई -लिखाई में ही अव्वल नहीं बल्कि संस्कारो में भी अव्वल थी |
गोद में खेलने से लेकर समझदार होने तक के सफर की यादें मेरे जेहन में रची बसी थी |
गायत्री दीदी मेरे दसवें जन्मदिन के बाद मुझे कभी नहीं मिली, लेकिन दिल आज भी उन्हें ढूढता हैँ |
अम्मा कहती थी लड़कपन में निस्वार्थ स्नेह देने वालों को कभी न भूलना चाहिए फिर भला मैं उन्हें कैसे भूलती !
वो खुद छोटी होकर भी मुझे अपनी उंगलियों की थापो से सुलाती | मेरी मासूम किलकारी उन्हें मिलेंनियम डॉलर की खुशियाँ देती | मुझे खुश करने के लिए वो तरह -तरह के करतब करती , अपनी बाहों में झूला झूलाती बस इस लगाव में कि मेरे साथ उनका ज्यादा से ज्यादा समय बीतें |
अपने 18वें जन्मदिन पर मेरा व्यथित मन गायत्री दीदी की कहानी जानने की जिद पर अड़ गया |अम्मा मेरी ज़िद के आगे हार गई |
संस्कारो में पली-बढ़ी, यौवन की दहलीज पर चढ़ती शांत सौम्य गायत्री का परिवार रूढ़िवादी था |
दीदी के घर में उनकी मामी के भाई राजू जी रहते थे, जिन्हे हम बच्चे प्यार से राजू मामा कहते थे | प्रोफेसर बाप के नकारे बेटे का समय पढ़ने में कम आवारागर्दी में ज्यादा बीतता था |
3जून की काली रात थी | उन दिनों घर की छत पर जाकर सोने का चलन था | घर के सभी लोग छत पर जाकर सोते थे जबकि दीदी कमरें में ही सोती थी |
रात के अँधेरे में सोई गायत्री दीदी के तरफ कोई मजबूत हाथ बढ़ रहा था, अपने घर में बेखौफ़ सोई गायत्री दीदी पर जिस्मानी हमला होगा ये दीदी की कल्पना से परे था |
मुँह पर पड़े मजबूत हाथ और मर्द की ताकत के आगे दीदी की एक न चली | गायत्री का चढ़ता यौवन उसके विनाश का कारण बन गया | पवित्र गायत्री अपवित्र गायत्री में तब्दील हों चुकी थी |
अपनी आबरु को अपना गुरुर मानने वाली गायत्री दीदी न रोई न सिसकी, बल्कि माँ काली बनकर उस पापी का संहार कर दी |
कारावास जाते वक़्त वो चुप थी, उनकी पथरीली आंखे वहां खड़े मर्दो से पूछ रही थी ----
"आखिर मेरा क्या कुसूर था ? मेरा यौवन मेरें लिए सजा क्यों बन गया? राक्षस के संहार करने की सजा जेल हैँ तो फिर महिषासुर मर्दिनी कों क्यों पूजते हो, उन्हें शक्ति की देवी क्यों कहते? "
सजा सुनाये जाने तक वो खामोश रही, न कुछ बोलती न रोती | सात साल जेल में वो नरक की यातना सहती रही |
घर वाले अपवित्र गायत्री से अपना रिश्ता तोड़ लिए |सात साल जेल की यातना सहने के बाद वो कहाँ गई, किसी कों नही पता |
मेरी तंद्रा तब टूटी ज़ब इनकी पुलिस की जिप्सी बाहर आकर रुकी | पुलिस वाले की पत्नी होने के नाते मेरा मन होता था कि इनसे दीदी कों ढ़ूढ़ने की गुज़ारिश करू लेकिन उनका काला अतीत मुझपर भी हावी हों जाता |
बचपन कब का बीत चूका और अब ऐसे लोगो से मिलकर भी क्या करना | मेरा समाज हैँ सोसाइटी हैँ, पुलिस वाले की पत्नी हूँ | कल को उनके अतीत से जुड़ी कोई बात उठ गयी तो मैं लोगो को क्या जवाब दूंगी |
दुनियादरी के ऊंचे कद के सामने अम्मा की सिख बौनी हों गयी |
“ कल आपका बेटा आपकी होने वाली बहु को लेकर आ रहा हैं | हमलोग लड़की से मिल लें उसके बाद उनके घरवालों से मिलकर बात पक्की कर देंगे | ”
" आज रात मैं घर वापस नहीं आऊंगा | मुझे शहर से बाहर जाना हैँ |"कोशिश करुँगा कल तक आने की लेकिन जरुरी नहीं कि आ ही जाऊ | "
दूसरे दिन क्षितिज वसुंधरा के साथ आ गया | वो बहुत ही प्यारी बच्ची थी, उसे देखकर लगता था उसे संस्कारो में ढाला गया हैँ लेकिन माता पिता के बारे में पूछने पर वो चुप लगा जाती या टालमटोल कर देती |
गेस्ट रूम में उसके रहने का इंतज़ाम करके जैसे ही बिस्तर पर आई क्षितिज गोद में आकर एक दुधमुंहे की तरह चिपक गया | बच्चे को गोद से चिपका कर हर माँ को जों सुकून मिलता वही सुकून मुझे वर्षो बाद मिला |
उसके बालों में ऊंगलिया फेरते- फेरते मैं मुद्दे पर आई और वसुंधरा के माता -पिता के बारे में जानने की उत्सुकता दिखाई |
अबतक बालक बना क्षितिज अचानक से जैसे सयाना हों गया हों और गोद से उछल कर खड़ा हों गया |
“मुझे शादी वसुंधरा से करनी हैँ उसके माता -पिता से नहीं | ”
“ ये बात मुझे भी पता हैँ, लेकिन माता -पिता, भाई बहन, खानदान इनसब की जानकारी होनी चाहिए | ”
मेरे कठोर अनुशासन से वो घबराया और अटकतें हुए बोला ----
“उसके मम्मी -पापा का डाइवोर्स हों गया, वंसुधरा अपनी विधवा मामी के साथ पली बढ़ी हैँ | ”
“कैसे मम्मी पापा हैँ जों बेटी को अकेले छोड़ दिए? डाइवोर्स होने के बाद भी बच्चा माँ या पिता के साथ रहता ही हैँ | तुम मुझसे कुछ छुपा तो नहीं रहे न? ”
“उफ्फ्फ मम्मी! मुझे जों पता था वो मैं आपको बता दिया | मेरी शादी होंगी तो वसु से होंगी | ”
वो तेज कदमों से कमरें से बाहर निकल गया | उसके बोलने के अंदाज से मेरा मन बुझ गया और मैं बत्ती बुझाकर सो गई |
रात में ये फ़ोन पर बातें करते हुए घर में दाखिल हुए | इनके मुख पर तनाव था, शायद अपराधियों को पकड़ने में पुलिस विफल रही थी |
“मुझे कुछ भी नही पता! शबनम बानो न जाने कितनों कों बर्बाद कर चुकी हैँ, अब और नही | उसे पाताल से भी खोज निकालो, जिन्दा या मुर्दा! जाल बिछा दो,मछली खुदबखुद फ़स जाएगी | ”
कमरें में खाना खा कर ये सो गए और मैं बाहर से दरवाजा लॉक कर दी क्योंकि मैं नही चाहती थी कि इनके आराम में कोई भी खलल डाले |
इनकी परेशानी देखकर मैं वसुंधरा से इन्हें नही मिलवाई लेकिन बेटे की चिंता में मुझे नींद नही आ रही थी | बेचैनी से दूसरे कमरें में टहल रही थी कि अचानक से खिड़की से देखी कि कोई साया मेरे लॉन में लगे नीम के पेड़ की तरफ बढ़ रहा था | उसके वहां पहुंचते ही नीम के पेड़ के पीछे से कंबल ओढ़े हुए एक काला साया निकला |
दोनों एकदूसरे के ऐसे गले लगे मानों वर्षो से बिछड़े प्रेमी हो | मुझे अनहोनी की आशंका होने लगी और मैं घबरा कर इनके कमरें की तरफ भागी |
कमरा पूर्व की भांति बाहर से बंद था | मैं हल्के हाथों से कमरा खोली | बेड पर इनको न देखकर मैं हतप्रभ थी |
लाइट ऑफ़ थी, मैं किसी का चेहरा नही देख पा रही थी तभी घबड़ाया हुआ क्षितिज मेरे कमरें में आया और बोला ---
“वसुंधरा कमरें में नही हैँ! गुंडे उसे उठा लें गए मम्मी | ”
“क्या बकवास करते हो? ये भी बंद कमरें से गायब हैँ, इन्हें भी गुंडे उठा लें गए? तुम पुलिस वालें के बेटे होकर ऐसे घबराओंगे तो कैसे होगा? ”
“आप कुछ नही समझती मम्मी, मैं वसु के बिना नही जी सकता, उसे कुछ भी हुआ तो मैं जी नही पाऊंगा | वो मेरे कंधे से लगकर भावुक हो गया |”
मन किया कि उसे दो तमाचा जड़ दू लेकिन
उस वक़्त की परिस्थिति कों देखते हुए मैं गुस्से कों पी गई और खिड़की से बाहर हो रहे तमाशे कों देखने लगी |
“मोहतरमा आप और आपकी बेटी घिर चुकी हैँ, चालाकी करने की कोशिश मत कीजियेगा | ”
कंबल ओढ़े हुए कोई पुरुष नही बल्कि स्त्री थी | उसकी कद काठी काफ़ी लम्बी चौड़ी थी | दूसरी स्त्री कों दो महिला पुलिस कर्मी पकड़े हुए ख़डी थी, वो कोई और नही बल्कि वसुंधरा थी |
वसु-वसु चिल्लाता क्षितिज बाहर की ओर भागा |
क्षितिज के चिल्लाने से सूक्ष्म पलों के लिए पुलिस वालों की तंद्रा भंग हो गई तभी वो महिला तेजी से पलटी और कमर में खोसा हुआ तमँचा निकाल कर मेरे पति के कनपटी पर सटा दी |
बिना दो पल गवाएं मेरी बेटी कों छोड़ने का आदेश दे वरना भेजा उड़ा दूगी | मेरा तो ज़ो होगा सो होगा तू भी नही बचेगा |
लॉन की सारी बत्ती जल चुकी थी |
मैं बाहर की तरफ भागी और उस महिला के पैरों पर गिर गई |
“ये आपकी बेटी कों छोड़ देंगे, लेकिन मेरें पति कों मत मारिये! आपको आपकी बेटी की कसम शबनम बानो उर्फ़ गायत्री दीदी! ”
नाम सुनकर उसके हाथ कांपने लगे तभी पुलिस वाले हरकत में आएं और दनादन उसके पाँव में और जाँघ में गोली मार दिए | वो धाराशाई हो गई |
पुलिस वाले वसुंधरा कों लें जाने लगे, लेकिन एक औरत होने के नाते मैं वसुंधरा कों लेकर घबरा गई कि कही गायत्री दीदी का अतीत दोहरा न जाएं | मेरे आग्रह करने पर वसुंधरा कों घर में ही नजरबंद रखा गया |
“ आप कमरें से बाहर कैसे निकले ? ”
"पुलिस वालों के घर में काम करने वाले भी पुलिस विभाग के ही आदमी होते हैँ |
उसकी माँ उससे मिलने की कोशिश करेंगी ये हमें पता था | मैं सोया नही था बल्कि अपराधी के जाल में फसने का इंतजार कर रहा था "
दो दिन बाद दीदी मुझसे मिलने की इच्छा जाहिर की, मैं उनसे मिलने पहुंची |
“आप कौन? ”
वो इशारों में मुझसे पूछी?
मैं पुरानी तस्वीरें साथ लेकर गई थी, बिना कुछ कहे तस्वीरें उनके सामने रख दी |
"गुड्डो! तू मुझे कैसे पहचानी गुड्डो?"
"आपके पंजे पर ईश्वर का दिया " लहसन का धब्बा" शायद इसी दिन के लिए दिया गया था दीदी |"
वो प्यार से मेरे गालों पर हाथ फेरने की कोशिश करने लगी | गोली लगने से अधिक पीड़ा उस वक़्त उनकी आँखों में दिखी |
"दीदी!वर्षो आपकों देवी मानकर पूजती रही, आपसे मिलने कों तड़पती रही | आप मिली भी तो एक गुनहगार के
रूप में दीदी! आपको देखकर बहुत तकलीफ हुई बहुत! "
“ अपनी दीदी कों गुनहगार कहेगी गुड्डो ?काकी के संस्कार मत भूल गुड्डो! मैं तेरे लिए आज भी वही गायत्री दीदी हूँ | तेरे साथ बंधे बंधन कों आज भी नही भूली! भूली होती तो तू आज विधवा होती! ”
उनके चेहरे पर कुटिल मुस्कान तैर गई और मेरी नजरें नीची हो गई |
वो एक लम्बी सांस लीं और पुनः बोली ----
" मर्दो की कुसूर की सजा हमेशा से औरत ही भोगती हैँ | मैं अपराधी जन्म नही लीं थी | जैसे लोहे कों पीट पीट कर पत्तर बनाया जाता वैसे ही जिंदगी मुझे पीट -पीट कर अपराधी बनाती गई |
कारावास की सजा खत्म होने के बाद मुझे समझ में नही आ रहा था कि इस भरी दुनिया में कहाँ जाऊ |
तभी पीछे से हो हल्ला करती एक जिप्सी निकली और आगे जाकर रुक गयी | | उसमें बैठे एक बाहुबली कों मैं पहचानती थी, वो थाने आते रहते थे |
वो इशारों से मुझे जिप्सी में बैठने कों बोलें , मैं एक रोबोट की भांति बैठ गई |
उनके घर के बाहर मुझे एक कमरा दे दिया गया, लेकिन साहब कभी मुझे बुरी निगाहों से नही देखे |
मैं मन ही मन उनसे प्यार करने लगी | एक बार उन्हें मलेरिया हो गया | मैं उनकी फ़िक्र में उपवास रखती,रात -रात भर जगकर उनकी सेवा करती | मेरी भावनाएं उनसे छुपी न रह सकी |
दुःख की काली रात खत्म हो गई | साहब स्वस्थ हो गए | बीमारी के दौरान हम दोनों करीब आ गए | वो पहले दिन से ही मेरे किस्से जानकर मेरी बहादुरी से प्यार करने लगे थे | वो बाहुबली चरित्र में भी थे, औरतों की इज़्ज़त करना उनके संस्कार में था | उनके खौफ से जेल में मुझे कोई तंग नही करता था, ये बात मुझे बाद में पता चली |
मेरा घर बसेगा , ये मेरी कल्पना से परे था लेकिन साहब मुझसे शादी किये और वो सबकुछ मुझे दिए ज़ो एक पत्नी कों मिलता हैँ |
मैं बहुत खुश रहने लगी |एक दिन साहब के मुँह से उनका काम सुनकर मेरे पाँव तले जमींन खिसक गई |वो ड्रग्स का धंधा करते थे |
वर्षो बाद मैं माँ बनी |हमदोनो वसुंधरा कों पाकर बहुत खुश थे लेकिन हमारी खुशियों कों नजर लग गयी | साहब पुलिस मुठभेड़ में मारे गए |
मैं वसु कों लेकर ठिकाना बदल दी | इसके बड़े होते ही इसे हॉस्टल में डाल दी क्योंकि मैं नही चाहती थी कि अपराध की काली परछाई इसे छुए |
साहब मुझे हर तरह से तैयार कर चुके थे, ये ऐसा दलदल हैँ जिसमें फसने के बाद इंसान जिन्दा बाहर नही आ सकता |
तब में और अब में बहुत फर्क आ गया | आज की लड़कियां बोल्ड हैँ ,क़ानून समझती हैँ | प्रशासन भी चुस्त हैँ, मिडिया सक्रिय हैँ | इंटरनेट की आँधी हैँ |
मैं अब जीना नही चाहती | तूझे मेरें प्यार का वास्ता गुड्डो! मेरी बेटी कों अपनी बहु बना लेंना | "हाँ " बोल दे गुड्डो "हाँ "बोल दे | उसे मेरें उस पाप की सजा मत दे ज़ो मैं जानबूझकर नही की बल्कि नसीब ने मुझसे करवाया |
जिस गायत्री से तू प्यार करती थी न बिल्कुल वही गायत्री मेरी बेटी हैँ | उसे मैं खुद से हमेशा अलग रखी, होस्टल में रखी | वादा कर गुड्डो वादा कर कि तू उसे गायत्री से शबनम नही बनने देगी | मेरी बेटी कों वैसा ही प्यार देंगी जैसा मैं तूझे देती थी | मेरे प्यार का "अनाम ऋण " चुकाने का वक़्त आ गया हैँ! मरते वक़्त मेरी झोली खुशियों से भर दे | अपनी बेटी कों तेरे हाथों में सौंपकर चैन से मर पाऊंगी |
इनका चेहरा मेरी आँखों के सामने नाच गया | मैं उनसे अपना हाथ छुड़ा लीं लेकिन अंतर्मन मुझे झकझोड़ता रहा, पवित्र गायत्री की बाहों का झूला याद बनकर बहने लगा --
"नारी तू नारायणी बनी अपराधिनी"
बचपन में मिले प्यार का ऋण भी चुकाना पड़ता ये मुझे नही पता था |
कुछ दिनों के बाद गायत्री दीदी की मौत हो गई | इनके विरोध के बावजूद वसुंधरा कों मैं अपनी बहु बनाकर गायत्री दीदी के ऋण से उऋण हो गई |
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