' रिश्ता ' एक ऐसा बंधन जो जन्म से मृत्यु तक मनुष्य के साथ चलते रहता है। यह मानव जीवन का अभिन्न अंग है। कभी-कभी तो मानव अस्तित्व का परिचायक भी बन जाता है। हर रिश्ता एक नाम के साथ जुड़ा होता है। कुछ जन्म से मिलते हैं,कुछ जीवन के सफर में जुड़ते चले जाते हैं। ईश्वर की अनुकंपा से प्राप्त रिश्ता जो माता-पिता कहने या कहलाने का सौभाग्य देता है। इसी कड़ी में जुड़ता - दादा-दादी,नाना नानी,चाचा चाची,भाई- बहन आदि रिश्ते भी होते हैं। अग्नि के सात फेरे कई नए रिश्तों से जोड़ते हैं जैसे पति-पत्नी,सास-ससुर तथा अन्य।
जीवन रूपी इस उपवन में कुछ ऐसे फूल भी मिलते हैं जो जन्म के संबंध और अग्नि की सौगंध के दायरे से परे होते हैं जिन्हें समाज ने नाम दिया ‘ मित्रता ’।
मित्रता का संबंध दिल,दिमाग,रक्त का नहीं,भावनाओं का होता है। कहीं पढा भी है कि ' जीवन का सबसे अमूल्य उपहार एक अच्छा मित्र होता है।' बचपन की दोस्ती, जवानी की दोस्ती,बुढ़ापे की दोस्ती…. चेहरे बदलते हैं पर भावनाएं वैसे ही रहती हैं ।स्नेह से भरी ,पवित्रता में लिप्त,हर चिंता से मुक्त । संपूर्ण विश्व में शायद ही कोई ऐसा होगा जिसका कोई मित्र ना हो ,जिसने किसी से भावनाओं का रिश्ता ना जोड़ा हो जिसे किसी अपने से अधिक उस को महत्व न दिया हो जिसे जिंदगी ने अचानक से बहुत अपना बना दिया हो।
संभवत है यह मित्रता का रिश्ता स्वार्थ,लोभ,अपेक्षा से परे होता है परंतु दुर्भाग्य से यदि मित्र के चयन में जरा सी भी त्रुटि हुई तो जीवन भर टूटे हुए उस हृदय का जुड़ना असंभव हो जाता है जिसमें मित्र का महत्वपूर्ण स्थान होता है। मित्रता पर आधारित कई बाल कथाएं आंखों के समक्ष जीवंत चित्र प्रस्तुत कर देती हैं। 'घनिष्ठ मित्र' की कहानियों की अपेक्षा ' कपटी मित्र' की कहानी अधिक स्मरित तथा प्रचलित है।जैसे ‘मगरमच्छ व बंदर ’,' दो मित्र और भालू 'आदि।
रामायण में भी तुलसीदास जी ने अति सुंदर और सहज शब्दों में मित्र के गुण को दर्शाया है ---------
देत लेत मन शंक ना धरई।
बल हनुमान सदा हित करई।।
विपत्ति काल कर सतगुण नेहा।
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।।
देने लेने में मन में शंका न रखे , अपने बाल अनुसार सदा हित करता रहे।विपत्ति के समय में तो सौ गुना स्नेह करे, वेद कहते हैं वही श्रेष्ठ मित्र के लक्षण है।
हर परिभाषा में समयानुसार परिवर्तन होता रहा है।कई विचार तो किताबों में पड़े पड़े दीमक को समर्पित हो गए। परंतु friend in need is friend indeed. का तथ्य धूल जमने से दूर है। सुख दुख को साथ जीना ,बिना किसी कसम के हर वादा निभाना ,मित्र पर आने वाले हर कष्ट का सामना करने की ताकत रखना,मित्र के आंसुओं को मुस्कुराहट में बदलने का हर उचित प्रयास करना ही मित्रता की उचित शैली है।
जे न मित्र दुख, होंहि दुखारी।
तिन्हहूि बिलोकत पातक भारी।।
जो मित्र के दुख से दुखी ना हो, उन्हें देखने पर भी पाप लगता है। यह मानस में कहा गया है।
विद्यालय में एक कक्षा में जब अलग-अलग बेंच पर बैठने वाले दो अलग-अलग लोग एक दूसरे के सहपाठी से सहचर बन जाते हैं, एक गली के अलग-अलग घर में रहने वाले दो लोग जब एक ही थाली में खाने लग जाते हैं, दो अलग शहर के लोग जब एक जैसा सोचने लग जाते हैं तो वह मित्रता का आरंभ होता है। परंतु आवश्यक नहीं कि साथी आपकी कसौटी पर खरा ही उतरे। परिस्थितियां अक्सर आशाओं की दहलीज लांघकर परीक्षा लेती हैं। इस परीक्षा में जो एक दूसरे का दामन नहीं छोड़ते और मित्र के पीठ पर होने वाले वार को सीने पर झेलते हैं वही सच्चे मित्र कहलाते हैं ।जो अपने मित्र की निंदा करते या सुनते हैं ,विवेक को त्याग मित्र को वेदना देते हैं ,वह कुमित्र होते हैं।
जिनके विषय में संत तुलसीदास जी भी कहते हैं कि
आगे कह मृदुवचन बनाई ।
पाछे अनहित मन कुटिलाई ।।
जाकर चित्त एहीं गति सम भाई।
अस कुमित्र परिहरेहि भलाई।।
आपके समक्ष मीठी वाणी बोले पीछे अहित करें तथा मन में कुटिलता रखे जिसका स्वभाव इस प्रकार का हो ऐसे कुमित्र को त्याग देने में ही भलाई होती है ।
अच्छे मित्र को संपत्ति की तरह मानना और कुमित्र को विपत्ति मानकर त्यागना ही उचित है। मित्रता की इस अनमोल धरोहर का आनंद लेते हुए उसे सहेज कर रखना ही परम आनंद की अनुभूति देता है। जीवन की यह संजीवनी अपनी गुणवत्ता को व मौलिक अस्तित्व को संभाले रहे।
धन्यवाद।