'प्रकृति के प्रकोप' की पूरी फिल्म से पहले देखिए उसका ट्रेलर!

रूह कंपा रहा है, 'प्रकृति के प्रकोप' का ट्रेलर!



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‘प्रकृति के प्रकोप’ का ट्रेलर देखकर रूह कांप जाती है। पूरी फिल्‍म तो शायद कोई देख भी नहीं पाएगा। वैज्ञानिकों के अनुसार धरती का तापमान निरन्तर बढ़ता चला जा रहा है।  धरती अन्दर ही अन्दर धधकने लगी है। धरती की यह धधक प्रकृति की धुरी को धूल-धूसरित कर चुकी है। इस वर्ष गरमी ने आग उगलने का दशकों वर्ष का रिकार्ड़ तोड़ दिया है। कौन सी प्राकृतिक आपदा कब आ जाए, यह अनुमान लगाना धुरंधर मौसम वैज्ञानिकों व ज्योतिषियों के वश की बात भी नहीं रही है। पानी बरसने लगे तो बाढ़ का प्रकोप, गरमी पडऩे लगे तो अकाल का अभिशाप और सर्दी बढ़े तो बर्फ  के ढ़ेर देखने को मिलते हैं। प्रकृति बुरी तरह प्रभावित हो चुकी है और सभी मौसम अपने पथ से विचलित हो चुके हैं। मौसम में आए अप्रत्याशित परिवर्तन एवं असंतुलन असाध्य बीमारियों का मकडज़ाल, समय-असमय होने वाली अतिवृष्टि व अनावृष्टि, बढ़ रहा भूस्खलन, सूख रहे हिमनद, उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों पर तेजी से पिंघल रही बर्फ, भूकम्पों की बढ़ती संख्या आदि-आदि सब मिलकर कितने बड़े महाविनाश की भूमिका तैयार कर रहे हैं, यह सोचकर ही रूह कांपने लगती है। 

कब तक चलेगी प्रकृति और पर्यावरण के प्रति लापरवाही  ?
‘प्रकृति के प्रकोप’ की मुख्‍य वजह चरमसीमा पार कर रहा पर्यावरण प्रदूषण और पर्यावरण प्रदूषण के प्रति हमारी लापरवाही। लापरवाही इसलिए, क्योंकि हम पर्यावरण प्रदूषण को बढ़ावा देने वाले काफी कारकों के विषय में जानते भी हैं और समझते भी हैं। इसके बावजूद हम वो सब करते हैं, जिससे पर्यावरण प्रदूषण में शत-प्रतिशत इजाफा होता है। उदाहरण के तौरपर, सभी को मालूम है कि पेड़ ही समस्त जीव-जगत का आधार हैं और पेड़ काटना न केवल पाप है, बल्कि जीव-जगत के भविष्य से खिलवाड़ करना भी है। यह सब जानते और समझते हुए भी आखिर क्यों हम पेड़ों पर दिनरात कुल्हाड़ी चलाने में तल्लीन हैं? जब हमें यह पता है कि पेड़ों की कटाई से वन के वन साफ हो चुके हैं और वन व वन्य प्राणियों के अस्तित्व पर भी संकट खड़ा हो चुका है तो भी हम पर्यावरण के प्रति लापरवाही से बाज क्यों नहीं आ रहे हैं?

पेड़ों की अंधाधुंध कटाई का मतलब पर्यावरण के प्रति बहुत बड़ी गुस्ताखी !
पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से हम चंद रूपए कमा तो लेते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि ये चंद रूपये हासिल करके हमने कितना महंगा सौदा किया है और कितने बड़े महाविनाश को सहज आमंत्रित किया है। हमारी इसी लापरवाही के कारण अब पेड़ यत्र-तत्र ही दिखाई पड़ते हैं। पर्यावरण एकदम प्रदूषित होता चला जा रहा है और प्रकृति तेजी से असंतुलित होती चली जा रही है। इसके अलावा धरती की उपजाऊ क्षमता भी निरन्तर घटती जा रही है। पेड़ों की कमी के चलते छाया, लकड़ी, दवाईयां व अन्य बहुपयोगी चीजें भी मिलनी बंद हो गई हैं। अब तो धीरे सांस लेना भी दुर्भर होने लगा है। यह कितने बड़े आश्चर्य का विषय है कि इन सब जानकारियों के बावजूद हम दनादन पेड़ काटते चले जा रहे हैं और पर्यावरण के प्रति बहुत बड़ी गुस्ताखी करके बहुत बड़ी-बड़ी आफतों को सहज आमंत्रित कर रहे हैं।
 

बंजर हो रही है धरती, संकट में  है जन-जीवन  ! 

कृषि वैज्ञानिक एवं मौसम वैज्ञानिक दिनरात सुझाव व चेतावनी देते रहते हैं कि खेतों में सीमित मात्रा में रासायनिक खादों व दवाईयों का प्रयोग करना चाहिए। लेकिन, हम इसे नजरअन्दाज करके बड़ी संख्या में रासायनिक खादों व गैर-सिफारशी भयंकर विषैले कीटनाशकों का प्रयोग करने से बाज नहीं आ रहे हैं। हमारी इन्हीं सब लापरवाहियों के चलते न केवल वातावरण प्रदूषित हो रहा है, बल्कि जमीन के लाभदायी जीवाणु हमेशा-हमेशा के लिए नष्ट हो रहे हैं। इससे एक तरफ भयंकर रोग बढ़ रहे हैं और दूसरी तरफ, जमीनों की उपजाऊ क्षमता भी धीरे-धीरे घटती चली जा रही हैं और बड़ी संख्या में जमीनें बंजर होती चली जा रही हैं। पहले खेतों में जाने पर स्वच्छ हवा नसीब होती थी। जबकि, आजकल खेतों में रासायनिक कीटनाशकों की बदबू से सांस घुटने लगता है। अधिक फसल लेने के लालच में हम खेतों में उन रसायनों व कीटनाशकों का प्रयोग करने से भी नहीं चूकते हैं, जिनकी कृषि वैज्ञानिक भी सिफारिश नहीं करते हैं। हमारा यही लालच, हमें महाविनाश की तरफ तेजी से अग्रसित कर रहा है। इन सब लालचों, स्वार्थों व लापरवाहियों के चलते अनाज व सब्जियों की गुणवता में भी भारी गिरावट आ चुकी है और उनमें जहरीले तत्व भारी संख्या में समाहित होते चले जा रहे हैं। गैर-सिफारशी रसायनों व कीटनाशकों का इस्तेमाल करने से फसलों में ऐसी घातक बीमारियों व सुण्डियों का प्रकोप बढ़ चला है, जिन पर किसी भी कीटनाशी दवा का प्रभाव होना भी बन्द हो गया है। निश्चित तौरपर, भविष्य में हमें इसके बेहद गंभीर व भयंकर परिणाम भुगतने पड़ेंगे।
 

हमारी बुरी आदतें, पर्यावरण पर पड़ रहीं भारी ! 

सरकार प्रतिवर्ष पर्यावरण स्वच्छता संबंधी जाकरूकता के कार्यक्रमों पर करोड़ों रूपये खर्च करती है। लेकिन, वह सब हमारी लापरवाही व स्वार्थता के चलते एकदम बेकार चले जाते हैं। आज भी गाँवों में गन्दगी के ढ़ेर, सड़ते पानी से भरे गड्ढ़े और गलियों में बदबू मार रहा कीचड़ सहज देखने को मिलता है। लोग खुले में शौच जाने से बाज नहीं आ रहे हैं। यत्र-तत्र बेहिसाब कुड़े के ढ़ेर मौजूद मिलते हैं। महिलाएं गन्दे कपड़े, बच्चों के मल, मूत्र, गोबर, कूड़ा-कर्कट, साबून व वाशिंग पाउडर का पानी आदि सब नदी, तालाब व बहते नालों में छोडऩे से तनिक भी परहेज नहीं कर रही हैं। काफी गाँवों में गन्दे पानी की निकासी का समुचित प्रबन्ध भी नहीं मिलेगा। गाँवों की गन्दगी सीधे नदी, नाले अथवा तालाब में मिलते दिखाई देते हैं। यहां तक सप्लाई होने वाले पीने के पानी के सरकारी पाईपों, डिग्गियों आदि में भी गन्दे कपड़े धोने व गन्दगी बहाने की बुरी आदतें सामान्य देखी जा सकती हैं। इन सबके चलते पर्यावरण प्रदूषित होना व भयंकर बीमारियां पैदा होना स्वभाविक हैं।
 

कानूनी प्रक्रियाओं का हो रहा घोर उल्‍लंघन  !

सरकार काफी समय से समझा रही है कि प्लास्टिक की थैलियों की बजाय, कपड़े के थैलों का इस्तेमाल करें। क्योंकि, प्लास्टिक की थैलियों को बनाने की प्रक्रिया से लेकर, उसके निपटान तक भयंकर पर्यावरण प्रदूषण पैदा होता है। इन सबके बावजूद हम बड़ी शान से कपड़े के थैलों की बजाय प्लास्टिक की थैलियों का प्रयोग करने से बाज नहीं आ रहे हैं। काफी लोग तो ऐसे हैं जो सामान या सब्जी खरीदने से पहले दुकानदार के आगे शर्त रख देते हैं कि अगर तुम्हारे पास प्लास्टिक की थैली हो तो फलां-फलां सामान या सब्जी डाल दो। शहरों में व्यापक प्रचार-प्रसार किया जाता है कि नालों में गन्दगी व थैलियां न बहाएं। क्योंकि इससे सीवर रूक जाते हैं और गन्दा व प्रदूषित पानी बाहर आकर भयंकर बीमारियां फैलने का कारण बनते हैं। हम इस तरफ भी कोई ध्यान नहीं दे रहे हैं। शहरों में लगी छोटे-बड़े औद्योगिक कारखाने लाख चेतावनियों और कड़ाई के बावजूद गैर-कानूनी तरीके से अपने अपशिष्ट पदार्थों को पानी में बहा रहे हैं, खुले वातावरण में जला रहे हैं या फिर उनका निपटान खतरनाक तरीके से कर रहे हैं। कारखानों में कानूनी प्रक्रियाओं को धता बताते हुए भयंकर प्रदूषण फैलाया जा रहा है। इससे शहरों में सांस लेना तक दुर्भर हो चुका है।
 

छोड़नी होगी पर्यावरण के प्रति लापरवाहियां  ! 

वाहन प्रदुषण के मामले में भी हम कई कदम आगे बढ़ चले हैं। सडक़ों पर भारी संख्या में ऐसे वाहन दौड़ते दिखाई देते हैं, जो काले-विषैले धुएं के बड़े-बड़े गुब्बार छोड़ रहे होते हैं। ऐसे लोगों पर पुलिस सख्ती करने की कोशिश तो करती है, लेकिन चालाक लोग पैसों के बल पर नकली 'प्रदुषण नियंत्रित प्रमाण पत्र हासिल करके कानूनी पाबंदियों की दिन-दहाड़े धज्जियां उड़ाते हैं। काफी लोग रिश्वत व सिफारिश के आधार पर यातायात-नियमों की अवहलेना को ताक पर रखना, अपनी शान समझते हैं। हमारी इन सब लापरवाहियों के चलते न केवल पर्यावरण प्रदूषण अपनी चरम सीमा पर कर रहा है, बल्कि मानव जीवन के लिए वरदान माने जाने वाली ओजोन परत में छेद हो चुका है। यह छेद जीतना बढ़ता जाएगा, हमारे लिए उतना ही घातक होता जाएगा। क्योंकि यह ओजोन परत सूर्य की पराबैंगनी किरणों को धरती पर पहुंचने से रोकती हैं और मानव को चमड़ी के रोगों व कैंसर जैसी असाध्य बीमारियों से बचाने में एक अभेद्य कवच का काम करती हैं। पर्यावरण के प्रति हमारी भूलों, लापरवाहियों और नासमझियों के चलते ही प्रकृति असंतुलित हो चुकी है और ऋतुओं की स्वभावविक प्रक्रियाओं में खतरनाक परिवर्तन आ चुका है। यदि हमने पर्यावरण के प्रदूषण के प्रति अपनी लापरवाहियों को तत्काल नहीं छोड़ा तो सहज सोचा जा सकता है कि हमारा आने वाला भविष्य कितना भयंकर होगा।

Category:Nature



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Written by राजेश कश्‍यप

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वरिष्‍ठ पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक (स्‍वतंत्र)