'योग' क्या है? इसे संक्षिप्त रूप में परिभाषित करना सहज संभव नहीं है, क्योंकि 'योग' शब्द का व्यवहारिक अर्थ बेहद व्यापक है। लेकिन, साधारण शब्दों में 'योग' का मतलब 'जुडऩा', 'मिलना', 'युक्त होना', 'एकत्र होना' आदि होता है। संस्कृत में योग की उत्पत्ति 'युज' धातु से मानी गई है। 'युज' धातु में 'धञ' प्रत्यय जुडऩे से 'योग' शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। संस्कृत में 'युज' धातु का प्रयोग रूधादिगण में 'संयोग' के लिए, दिवादिगण में 'समाधि' के लिए और चुरादिगण में 'संयमन' के लिए प्रयुक्त हुआ है।
महर्षि पंतजलि ने अपने 'योगदर्शन' नामक ग्रन्थ में योग को चित को शांत करने व शरीर को रोगों से मुक्त करने वाला अचूक मंत्र कहा है। उन्होंने 'योग दर्शन' के समाधि पाद के द्वितीय सूत्र में योग को इस तरह से परिभाषित किया है :-
'योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:।। 2।।
तदा द्रष्टु: स्वरूपेऽस्थानाम्।। 3।।
वृत्तिसारूप्यमितरत्र।' ।। 4।।
अर्थात्, चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। तब द्रष्टा के स्वरूप में अवस्थिति होती है। दूसरी अवस्था में द्रष्टा वृत्ति के समान रूप वाला प्रतीत होता है।
वेदान्त दर्शन के अनुसार, 'जीवात्मा और परमात्मा को संपूर्ण रूप से मिलना योग है।'
योग वशिष्ठ के अनुसार, 'संसार सागर से पार होने की युक्ति को ही योग कहते हैं।'
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद भगवदगीता के छठे अध्याय के 16वें व 17वें श्लोक में योग का जिक्र करते हुए कहा है :-
'नात्यश्रतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्रत:।
न चाति स्वप्रशीलस्य जाग्रतो नैवचार्जुन।।
युकृाहार विहारस्य युक्त चेष्टस्य कर्मसु।
युक्त स्वप्रावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।'
अर्थात्, जो बहुत भोजन करता है, उसका योग सिद्ध नहीं होता। जो निराहार रहता है, उसका भी योग सिद्ध नहीं होता। जो बहुत सोता है, उसका भी योग सिद्ध नहीं होता और न ही उसका योग सिद्ध होता है, जो बहुत जागता है। जो मनुष्य आहार-विहार में, दूसरे कर्मों में, सोने-जागने में परिमित रहता है, उसका योग दु:खभंजन हो जाता है।
एक महायोगी ने योग को इस तरह से परिभाषित किया है :-
'योगं वदान्यै बल बुद्धि श्रेष्ठं,
पौरूष भवेत सदचित्त सौख्यं।
आत्मं परमात्मं भवतां नरेणं,
क्षेम च श्रेय योगं सुधीन:।।'
अर्थात्, सम्पूर्ण जीवन में योग ही एक ऐसा मार्ग है, जिसके द्वारा पुरूष को बल, बुद्धि, श्रेष्ठता, पौरूष एवं सच्चरित्रता, ये पाँच सर्वोत्तम गुण प्राप्त होते हैं। योग के द्वारा ही व्यक्ति सामान्य स्तर से ऊपर उठकर आत्मा और परमात्मा तक पहुँचने की क्षमता प्राप्त कर लेता है और इसके माध्यम से ही व्यक्ति को कल्याण, शुभत्व और सुधि की प्राप्ति होती है।
योगशास्त्र में शिव को प्रथम योगी माना गया है और उसे 'आदियोगी' की संज्ञा दी गई है। कई अन्य पौराणिक सन्दर्भों में भी शिव को प्रथम योग गुरू व आदि गुरू माना गया है। माना जाता है कि कई हजार वर्ष पूर्व, हिमालय में 'कांति सरोवर' के तट पर आदियोगी ने योग का ज्ञान-विज्ञान 'सप्तऋषियों' (सात ऋषियों) को दिया था। बाद में इन्हीं सप्तऋषियों ने आदिगुरू द्वारा दिये गए योग-ज्ञान को धरती के कोने-कोने में पहुँचाने का कार्य किया।
पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार भारतीय प्रायद्वीप व उसके आसपास योग संस्कृति जीवन का मूल आधार बनी। इसका साक्ष्य पुरास्थलों की खुदाई के दौरान मिलीं ऐसी अनेक मूर्तियां, मुहरें एवं तरह-तरह की सामग्रियां हैं, जिनमें योग की विभिन्न मुद्राएं अंकित हैं। योग की विशिष्ट महिमा का उल्लेख अमृताशीति, योग तत्वोपनिषद, योगकुण्डल्योपनिषद, योग चूड़ामण्युपनिषद, हठयोग प्रदीप, कूर्म पुराण, ज्ञानार्णव, मरण्यकण्टिका, समाधितंत्र, लिंग पुराण, देवी भागवत, मार्कण्डेय पुराण, वायु पुराण, शिव पुराण, विष्णु पुराण, स्कंध पुराण, नारद पुराण, श्रीमदभगवत, अग्रि पुराण आदि प्राचीन ग्रन्थों में विस्तार से मिलता है। पंतजलि जैसे महर्षियों, मुनियों, साधु-सन्तों, योगाचार्यों और महायोगियों ने योग को सर्वव्यापी बनाने में उल्लेखनीय भूमिकाएं निभाईं हैं। आधुनिक युग में 'योग गुरू' के रूप में मशहूर स्वामी रामदेव ने देश-विदेश में योग का परचम फहराया है। उनके अलावा, अन्य अनेक धर्माचार्य, योगी, साधू, सन्त और विद्वानों ने भी योग संस्कृति को समृद्ध बनाने में अतुलनीय योगदान दिया है।
महर्षि पंतजलि ने 'योगदर्शन' में कुल आठ प्रकार के योग बतलाए गए हैं, जोकि इस प्रकार हैं:-1.यम, 2.नियम, 3. आसन्न, 4. प्राणायाम, 5.प्रत्याहार, 6.धारणा, 7.ध्यान और 8.समाधि। इन सबको मिलाकर अष्टांग योग कहा जाता है। योग को किसी धर्म, मजहब अथवा साम्प्रदायिकता के नजरिये से आंकना, मूर्खता के सिवाय कुछ नहीं है। योग का तो एक ही मूलधर्म है, श्रेष्ठ जीवन निर्माण। योग और अध्यात्म को गहराई से समझने की आवश्यकता है। दोनों का मूल काम है व्यक्ति को शारीरिक रूप से निरोग बनाना और मानसिक रूप से मजबूती प्रदान करना। योग के साथ आयुर्वेद भी जुड़ता है। यदि योग और आयुर्वेद को एक-दूसरे का पूरक कहा जाये तो कदापि गलत नहीं होगा। योग व आयुर्वेद तीन गुणों सत्व, रज व तमस और मंचमहाभूत पृथ्वी, वायु, अग्रि, जल और आकाश के सिद्धान्तों पर आधारित हैं।
सर्वमान्य रूप से कहा जा सकता है कि योग का बहुत महत्व है और यह एक श्रेष्ठ जीवन जीने की कला है। योग करने से शरीर एकदम स्वस्थ व सुन्दर बनता है। योग करने से शारीरिक व मानसिक शांति मिलती है। इससे शरीर सुडौल व मजबूत बनता है और किसी तरह का कोई रोग नहीं होता है। योग से बुद्धि तेज होती है और स्मरण शक्ति बढ़ती है। योग से श्वसन तंत्र मजबूत होता है और ध्यान से मानसिक स्थिरता प्राप्त होती है। इससे एक उद्देश्यपूर्ण जीवन का निर्माण होता है और व्यक्तित्व में व्यवस्थित व योजनाबद्ध तरीके से काम करने की प्रवृत्ति पैदा होती है। योग से तमाम कुप्रवृत्तियों, दुर्व्यसनों और दुर्गुणों से निजात पाई जा सकती है। योग हर प्रकार से शक्तिशाली बनाने के साथ-साथ हमें बुद्धिमान व कार्यकुशल बनाता है। कुल मिलाकर, योग से ही सर्वांगीण विकास संभव हो सकता है। यदि एक श्रेष्ठ जीवन का निर्माण करना है और नकारात्मक ऊर्जा से निजात पाकर सकारात्मक ऊर्जा का संचार करना है तो योग ही एकमात्र उपाय हो सकता है। शारीरिक एवं मानसिक विकारों को योग जड़ से मिटाता है और शरीर में एक नई ताजगी, स्फूर्ति एवं उमंगता का संचार करता है।
आधुनिक युग में तो योग अति आवश्यक हो गया है। लोगों की जीवनशैली में व्यापक बदलाव आ चुका है। भयंकर प्रदूषण, रासायनिक खेती, फास्ट-फूड संस्कृति और अनियमित दिनचर्या ने लोगों को शारीरिक व मानसिक रूप से बेहद कमजोर करके रख दिया है। हृदय संबंधी रोगों की बाढ़ आ चुकी है। दुनिया में भयंकर और असाध्य रोगों की कतार लगी हुई है। लोगों में धैर्य और सहनशीलता की भारी कमी आ चुकी है। बौद्धिक स्तर का निरन्तर हा्रस हो रहा है। मानवता पर पाश्विकता हावी हो रही है। यदि यह क्रम निरन्तर चलता रहा तो मानवीय जीवन के भविष्य की कुरूपता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। कहना न होगा कि योग का अनुसरण ही इन समस्त समस्याओं एवं विकारों का निराकरण संभव है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक हैं।
राजेश कश्यप
स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक
म.नं. 1229, पाना नं. 8, नजदीक शिव मन्दिर,
गाँव टिटौली, जिला. रोहतक
हरियाणा-124001
मोबाईल. नं. 09416629889
email: [email protected]
लेखक परिचय : हिंदी और जनसंचार में द्वय स्नातकोत्तर। गत अढ़ाई दशक से समाजसेवा एवं प्रिन्ट एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया के लिए स्वतंत्र लेखन जारी। प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में तीन हजार से अधिक लेख एवं फीचर प्रकाशित। ब्लॉगर एवं स्तम्भकार। लगभग एक दर्जन पुस्तकों का लेखन एवं सहलेखन। दो दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित सम्मान एवं पुरस्कारों से अलंकृत।
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक (स्वतंत्र)
0 Followers
0 Following