मुगल जल्लाद की क्रूर और रूह कंपा देने वाली यातनाओं से जब बेडियों में जकड़ा हुआ बंदा सिंह बहादुर नहीं टूटा और इस्लाम धर्म अपनाने के लिए हां नहीं की तो वह बुरी तरह से बौखला उठा। उसके बाद जल्लाद ने बेरहमी की सभी हदें पार कर दी। वह बंदा बहादुर सिंह के सामने उसके उसके चार वर्ष के मासूम बेटे को घसीटते हुए लाया और तलवार एक ही वार से उसके जिगर के टूकड़े का सिर धड़ से अलग कर दिया। केवल इतना ही नहीं, उस वहशी-दरिन्दे जल्लाद ने उस बच्चे के कलेजे को शरीर से निकाल लिया और बंदा सिंह बहादुर के मुंह में ठूंस दिया। इतनी भयंकर सजा? पढ़ने और सुनने मात्र से ही रूह कांप उठे। लेकिन, फिर भी बंदा सिंह बहादुर अपने संकल्प अडिग और अटूट बना रहा। इसके बाद, जल्लाद ने बंदा सिंह बहादुर के एक-एक करके शरीर के सभी अंगों को काटना और नोंचना शुरू कर दिया। यहां तक कि बंदा सिंह बहादुर की दोनों आंखों को भी बड़ी बेरहमी से फोड़ दिया गया। लेकिन, बंदा सिंह बहादुर ने अपने धर्म और फर्ज के लिए मुगलों की गुलामी स्वीकार नहीं की। अंतत: जल्लाद ने बंदा सिंह बहादुर के सिर को को तलवार के भयंकर वार से धड़ से अलग कर दिया। इस तरह से, बंदा सिंह बहादुर अपनी बहादुरी का एक स्वर्णिम अमिट अध्याय अंकित करके अपने देश और धर्म के लिए कुर्बान हो गए। इस अजर अमर सिख महायोद्धा बंदा सिंह बहादुर की इस कुर्बानी को देश कभी भुला नहीं सकता।
बाबा बंदा सिंह बहादुर एक महान निर्भीक सिख योद्धा थे। उनका जन्म कश्मीर के राजौरी क्षेत्र में 27 अक्तूबर, 1670 को हिन्दू राजपूत परिवार में हुआ था। उनका वास्तविक नाम ‘लक्ष्मण देव’ था। एक गर्भवती हिरणी का शिकार करने पर उनका मन व्यथित हो उठा। उन्होंने वैराग्य धारण कर लिया और जानकी दास नामक बैरागी के शिष्य बन गए, जहां पर उन्हें नया नाम मिला ‘माधोदास बैरागी’। वे नासिक के पास पंचवटी में रहने लगे। 21 वर्ष की उम्र में उन्होंने नांदेड़ में अपना आश्रम बना लिया। 03 सितम्बर, 1708 को सिखों के दसवें गुरू गुरू गोबिन्द सिंह इस आश्रम में पहुंचे। उन्होंने इस आश्रम का नामकरण बाबा बंदा सिंह बहादुर के नाम से किया और उन्हें वैराग्य त्यागकर मुगलों के जुल्मों के खिलाफ जंग लड़ने और अपने देश व समाज की सेवा करने के लिए तैयार कर लिया। बंदा सिंह बहादुर ने गुरू गोबिन्द सिंह से प्रभावित होकर सिख धर्म अपना लिया और मुगलों के खिलाफ जंग लड़ने के लिए तैयार हो गए। गुरू गोबिन्द सिंह ने उन्हें एक नया नाम दिया ‘गुरबक्श सिंह’। इसके साथ ही, उन्होंने बंदा सिंह बहादुर को जंग में उतरने से पहले एक दोधारी तलवार, तीन तीर और पांच योद्धा भी दिए।
बंदा सिंह बाहदुर बहादुरी की अमिट मिसाल थे। बचपन से तीर कमान और घुड़सवारी में माहिर थे। नेतृत्व का गुण उनमें कूट-कूटकर भरा हुआ था। उनकीं बहादुरी और निर्भीकता के कारण ही उन्हें ‘बंदा सिंह बहादुर’ के नाम से नवाजा गया। जब गुरू गोबिन्द सिंह ने उन्हें मुगलों से जंग लड़ने के लिए पंजाब में सिखों का नेतृत्व करने के लिए कहा तो वे तत्काल पंजाब पहुंच गए। केवल तीन से चार महीने के अंदर उन्होंने अपने नेतृत्व में एक सेना तैयार कर ली, जिसमें पांच हजार घुड़सवार योद्धा और आठ हजार पैदल सैनिक शामिल थे। इसके कुछ ही समय बाद उनकीं संख्या बढ़कर उन्नीस हजार तक पहुंच गई।
बंदा सिंह बहादुर पहले ऐसे महान सिख योद्धा बने, जिसने मुगलों के अजेय होने को दंभ को चकनाचूर कर दिखाया। उन्होंने अपने रणकौशल से मई, 1710 में सरहिन्द को जीतकर मुगलों को भयंकर हार का मजा चखाया। उन्होंने सतलुज नदी के दक्षिण में सिख राज्य की स्थापना भी की। उन्होंने अपने नए कमान केन्द्र का नाम ‘लौहगढ़’ रखा। इसके साथ ही, उन्होंने कुछ ही समय में अपने राज्य का विस्तार करके लाहौर और अमृतसर की सीमा तक पहुंचा दिया।
बंदा सिंह बहादुर ने अपने शौर्य से मुगलों में आतंक मचाकर रख दिया। मुगलों ने बंदा सिंह बहादुर को पकड़ने के लिए ऐड़ी चोटी का जोर लगा दिया। मुगल बादशाह बहादुर शाह को स्वयं बंदा सिंह बहादुर के खिलाफ जंग में उतरना पड़ा। बहादुर शाह ने एक विशाल सेना लेकर ‘लौहगढ़’ के किले में बंदा सिंह बहादुर को घेर लिया। विपरीत परिस्थितियों के बीच बंदा सिंह बहादुर को भेष बदलकर लौहगढ़ से निकलना पड़ा। वर्ष 1712 में बहादुर शाह का निधन हो गया। अब मुगल ताज उनके भतीजे फर्रूखसियर को मिला। उन्होंने कश्मीर के सूबेदार अब्दूल समद खां को बंदा सिंह बहादुर को पकड़ने के लिए विशेष अभियान चलाने का आदेश दे दिया।
सूबेदार अब्दूल समद खां के विशेष अभियान के कारण बंदा सिंह बहादुर को सरहिन्द छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। वे बचते-बचाते हुए गुरदासपुर शहर से चार मील दूर गुरदास नांगल गांव में बने एक किले में पहुंच गए। लेकिन, उस किले को मुगल सेना ने चारों तरफ से घेर लिया। किले की नाकाबंदी करके भोजन, जल आदि तक के जाने पर पूर्ण रूप से पाबंदी लगा दी गई। बंदा सिंह बहादुर अपने योद्धाओं के साथ लगभग आठ महीने तक फूल पत्ते खाकर गुजारा करते रहे। कुछ इतिहासकारों के अनुसार भूखमरी के कारण उन्हें अपने ही घोड़ों का मांस खाने को विवश होना पड़ा। अंतत: उन्हें किले से बाहर निकलना पड़ा। उन्हें उनके असंख्य यौद्धाओं के साथ बंदी बना लिया गया और फरवरी, 1716 में दिल्ली दरबार में पेश किया गया। इन यौद्धाओं को 5 मार्च, 1716 को मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया गया। 9 जून, 1717 को बंदा सिंह बहादुर को उनके कुछ शूरवीर यौद्धा साथियों के साथ कुतुब मीनार के पास महरौली में बहादुर शाह की कब्र पर लाया गया और उन्हें घुटने टेककर इस्लाम कबूल करने के लिए भयंकर यातनाएं दी गईं। लेकिन, बंदा सिंह बहादुर यातनाएं सहता रहा, लेकिन, मुगलों के आगे झुका नहीं। इसके बाद, बौखलाकर उन्हें रूह कंपाने वाली यातनाएं दीं गईं। यहां तक उनके चार वर्ष के मासूम बेटे का कलेजा निकालकर उनके मुंह में ठूंस दिया गया, लेकिन बंदा सिंह बहादुर टस से मस नहीं हुए। उनके अंगों को छिन्न-भिन्न करके क्रूरतम यातनाएं दी गईं, उनकीं आखें फोड़ दी गईं और शरीर के अंगों को एक-एक करके काट दिया गया, फिर भी यह शूरवीर अपने धर्म पर अडिग रहा। मुगल उनकीं बहादुरी के टूट गए और उन्होंने बौखलाकर बंदा सिंह बहादुर का तलवार से सिर काट दिया। इस महान सिख यौद्धा की इस कुर्बानी को यह देश एवं समाज हमेशा याद रखेगा। इस अजर अमर निर्भीक योद्धो कोटि-कोटि प्रणाम।
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक (स्वतंत्र)