एक जमाना था जब मनुष्य के पास कुछ नहीं था । दो समय का खाना भी उसके लिए मुश्किल था । बड़े - बड़े परिवारों मे इंसान की अहमियत ज्यादा नहीं थी । वर्तमान की तरह भौतिक सुख सुविधा के साधन नहीं थे , फिर भी वो सुखी था । रूखी सुखी खाकर, परिवार के साथ रहकर अपने आप को किसी राजा से कम नहीं समझता था ।
और एक आज का समय है जब मनुष्य के पास सुख सुविधा के तमाम साधन है । छोटे - छोटे परिवार है , किसी की कोई चिंता नहीं । जो मन करे वो करो । कोई रोकने वाला भी नहीं । लेकिन फिर भी यहाँ हर कोई दुखी है । किसी के दिल मे शांति नहीं । ना जाने ऐसा क्या है जो सबको परेशान कर रहा है । मै समझती हूँ कि मनुष्य स्वयं ही अपने दुख का कारण है । क्योकि हम हमारे पास सब कुछ है ,इसमें खुश नहीं है । हम दुखी है क्योकि दुसरों के पास थोड़ा भी क्यो है । हम अपनी खुशी मे खुश नहीं हो सकते लेकिन दुसरों के दुख मे अवश्य खुशी ढूंढ सकते है । परीक्षा मे हमारे बच्चे के अंक कितने आए इससे ज्यादा चिंता हमें इस बात की है की पड़ोसी या रिश्तेदारों के बच्चे के अंक कितने आए ? हमारा बच्चा कितने भी लाए पर उनसे कम नहीं । क्यों ? ये ईर्ष्या प्रवृत्ति क्यों ?
दूसरा कारण मुझे हमारी नकारात्मकता सोच लगती है । किसी इंसान मे लाख अच्छाईयां हो परन्तु हमें उसकी बुराई ही दिखती है । हम भूल जाते है कि हम भी तो बुराइयों का पुलिंदा है । हम क्यों किसी इंसान को भगवान बनाने पर तुले है ? हम सामने वाले की गलतियों को भुनाने मे इतने व्यस्त हो जाते है कि सारे रिश्ते ही दांव पर लगा बैठते है ।
अगर हम सामने वाले से भूल वंश हुई गलतियों को नजर अंदाज कर दे तो सोचो हमारी कितनी समस्याओं का अंत हो जाए । हम अगर दुसरों की खुशी मे खुशी ढूंढ ले तो जीवन कितना सरल हो जाए । क्यो न आज से हम ये प्रयास करे ?