" क्रान्तिदृष्टा कवि की लोक संग्रहीत करुणा, संवेदना एवं मर्म गाम्भीर्य से सम्पृक्त स्वानुभूतियां शाब्दिक सन्दर्भ-सूत्रों की संश्लिष्टता लेकर आत्मसाक्ष्य के लोक में सूक्ष्मता के साथ सम्प्रेषणीय ऋचाओं की विभ्राट सत्ता का प्रतिष्ठापन कविता के रूप में करती हैं। समग्रता की भावभूमि में ही काव्य महनीयता की सरणि पाता है।" यह आत्मकथ्य है 14 जुलाई 2024 को अकस्मात गोलोकवासी हुए विद्वत्वरेण्य कविर्मनीषी डाॅ. रामलखन सिंह परिहार 'प्रांजल' का जोकि श्री शिवशरण सिंह चौहान 'अंशुमाली' द्वारा सम्पादित सन्दर्भ-ग्रन्थ "फतेहपुर का काव्य प्रकाश" में प्रकाशित है।
श्री अंशुमाली जी वर्तमान में जनपद के वरिष्ठतम समादृत साहित्यकारों में अग्रगण्य हैं। उनके अनुसार, "डाॅ. रामलखन सिंह परिहार 'प्रांजल' जो मेरे धीर वीर शिष्य रहे हैं, साहित्य के क्षेत्र में मुझसे आगे हैं। ...... उन्हें मैं कविता के क्षेत्र का जयशंकर प्रसाद मानता हूं।" अपने यह अभिमत अंशुमाली जी ने अपने द्वारा सम्पादित एक अन्य कृति "अष्टांग भारती " में व्यक्त किया है।
07 जुलाई 1963 को उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिलान्तर्गत ग्राम भदबा ( भद्रवास ) में जन्मे डाॅ. प्रांजल विद्यार्थी जीवन से ही साहित्यानुरागी थे। पारिवारिक परिवेश भी सात्विक तथा साहित्यसेवी था। जनपद के सुख्यात कवि पं. सोहनलाल द्विवेदी प्रेरणास्रोत थे। 'जीवन मेरा!' शीर्षक से लिखी गई प्रांजल जी कविता की प्रारम्भिक पंक्तियां अवलोकनीय हैं -
" युग परिवर्तन का शंखनाद
छाॅंटता सतत छाया प्रमाद
उपहार सदृश लेने वाला-
नित सुख-दुख का अद्भुत प्रसाद
सोया संसार जगाता है
यह अरुणराग जीवन मेरा।"
उच्च शिक्षा प्राप्त कर डाॅ. प्रांजल जीविकोपार्जन हेतु कालाकांकर (प्रतापगढ़) चले गये, परन्तु जन्मभूमि का मोह उन्हें फतेहपुर से बाॅंधे रहा। वे कालाकांकर स्थित मदन मोहन मालवीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में कृषि संकाय के प्रमुख थे। कर्तव्यनिष्ठा उनके स्वभाव में थी और कदाचित इसीलिए वे अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए ही परमधाम को चले गये। ध्यातव्य है कि जिस समय उनका प्राणान्त हुआ, वें पीएचडी की मौखिकी परीक्षा के निष्पादनार्थ बरेली में थे।
आज भले ही डाॅ. प्रांजल हमारे बीच न हों, परन्तु उनकी कालजयी कृतियां हमें हमेशा उनकी याद दिलाती रहेंगी। उनकी उल्लेखनीय कृतियों में 'पूर्वार्द्ध', 'लेख आलेख', 'कड़ा मानिकपुर और विकास पुरुष नियाज़ हसन', 'आओ मातु भारती' आदि प्रमुख हैं। 'पूर्वार्द्ध' कई विभागों में विभाजित है; यथा -
1- वीणा के तारों में ( गीत एवं कविताएं )
2- प्रवाह ( गीत एवं कविताएं )
3- भावांजलि ( गीत एवं कविताएं )
4- आत्मचिंतन ( गीत एवं कविताएं )
5- प्रबुद्धा आम्रपाली ( खण्ड काव्य )
डाॅ. प्रांजल यावज्जीवन मां भारती के साधक-आराधक रहे। 'आओ मातु भारती' सम्भवतः उनकी अंतिम प्रकाशित कृति है जिसमें मां भारती की वंदना के 108 छ्न्द संग्रहीत हैं। पहले भी वे विभिन्न रूपों में मां भारती की अभ्यर्थना करते रहे हैं -
" भारती मां ! शान्ति की वीणा बजाओ
साधना - आराधना के गीत गाओ।"
'गीत मर नहीं सकता राही! हर पल साथ निभाए।' लिखकर गीत की अमरता में विश्वास करने वाले डाॅ. प्रांजल के निम्नांकित गीत मंचों से सर्वाधिक सुने और सराहे जाते थे -
1- “मुंडेरे पर सुबह-सुबह सखि कागा बोल गया है।”
2- "चल रहा पीता अंधेरा दीप मेरा
पंथ में निर्वाण तक जलता रहेगा।"
3- "इन्द्रधनुषी छवि वलय के टूटने पर -
स्वप्न-पाॅंखी साथ कितने दिन रहोगे।"
4- "जिस दिन पीड़ा की बस्ती से मुझको दूर करेगा कोई,
गीतों के स्वर-पाॅंखी मेरे संन्यासों की ओर चलेंगे!"
डाॅ. प्रांजल गद्य और पद्य दोनों के सिद्धहस्त सर्जक थे। पद्य में छंदोबद्ध और छंदमुक्त दोनों प्रकार का प्रामाणिक तथा स्पृहणीय सृजन कर उन्होंने सुयश कमाया। हिन्दी की लगभग सभी स्तरीय साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित हुईं। 'नूतनवाग्धारा' के सितंबर, 2013 अंक में उनकी चार पृष्ठ की एक लंबी कविता "मुक्ति की संकल्पना" शीर्षक से प्रकाशित हुई है। कविता के प्रारम्भ में पत्रिका के सम्पादक डाॅ. अश्विनी कुमार शुक्ल ने अपनी टिप्पणी देते हुए लिखा है - "प्रस्तुत कविता में प्रकृति के दो उपादान- अश्वत्थ ( पीपल ) और वट सम्पूर्ण मानव जाति के सनातन काल से चले आ रहे दो वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उन्हें शोषित- शोषक, समाजवादी- सामन्तवादी कहा जा सकता है।" दृष्टव्य हैं इस लम्बी कविता की कुछ उद्धरणीय पंक्तियां -
"संघर्ष-निकष पर ही कस कर व्यक्तित्व विभासित होता है
संक्रान्ति तमिस्रा में पलकर वह आत्म-प्रकाशित होता है।
जो साध्य सजग सन्नद्ध सदा बलिदान वृत्ति अपनाते हैं
मरणोत्तर प्राणों से बढ़कर शाश्वत अमूल्य निधि पाते हैं।"
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"हो विकृत रूढ़ियों - परम्पराओं का भंजन ,
अस्पृश्य जनों के लिए खोलकर हृदय-द्वार,
तुम करो पुनः दिग्भ्रान्त जनों का दिग्दर्शन
कुंठा से नीरस, समष्टि का अनुरंजन ।"
'नूतनवाग्धारा' के मार्च 2015 अंक में भी डाॅ.प्रांजल की एक अपेक्षाकृत कम लम्बी कविता "गांधारी का परिताप" प्रकाशित हुई है, जिसकी अन्तिम पंक्तियां अत्यंत प्रभावशालिनी हैं -
" ओ ! समय संक्रांति की छाया
विदा हो !
आत्म-विश्लेषित जगी संचेतना के क्षण -
करूॅं अक्षय प्रखर आलोक
पथ पर संचरण !"
संस्कृत साहित्य के काव्याचार्य मम्मट ने अपने सुचर्चित ग्रन्थ "काव्य प्रकाश" में कवियों की सर्जना का हेतु निरूपित करते हुए लिखा है -
" काव्यं यशसेऽर्थकृतो व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये ।
सद्य: परिनिर्वृत्तये कान्तासम्मिततयोपदेशपुजे ।।"
अर्थात "कवि की सर्जना यश, धनोपार्जन, व्यवहार ज्ञान, अमंगल विनाश, अलौकिक आनन्द एवं कान्ता सरसता के साथ प्रियतम को अपनी ओर अभिमुख करने के लिए होती है।" सुकवि डाॅ. प्रांजल ने लगता है कि मम्मट के इस निकष पर खरे उतरने के प्रयास में कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने विविध विषयों पर अपनी कलम चलाकर अपने वैदुष्य का परिचय दिया। उनकी 'वीरान इमारत' कविता पढ़कर प्रत्येक पाठक का ध्यान उनकी असामयिक मृत्यु की ओर आकर्षित होगा ही होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि मानों वे किसी इमारत की नहीं, अपनी ही बात कह रहे हैं -
" अरे ! यह इमारत
इतनी जल्दी
इतनी जर्जर
इतनी वीरान..."
पूरी कविता पढ़कर सहसा विश्वास नहीं होता कि उत्कट जिजीविषा का धनी कवि कैसे, किन क्षणों में यह लिखकर रख गया। अपनी जीवट की 'जिजीविषा' को लेकर भी उन्होंने एक कविता लिखी है जिसकी प्रारम्भिक पंक्तियां हैं -
" नचा रहा है भीतर - बाहर
माया का जंजाल,
उस पर भी तो लड़ना होगा
जीवन का संग्राम ।"
साहित्य के सजग सर्जक डाॅ.प्रांजल ने अपने नाम के अनुरूप सदैव संस्कृतनिष्ठ प्रांजल भाषा का ही प्रयोग किया है। वे शुद्ध हिन्दी के समर्थक थे, हिन्दुस्तानी ( मिली-जुली भाषा ) के नहीं। तथापि, उन्होंने मौजमस्ती में कभी-कभी ग़ज़ल लिखने का प्रयास किया है। बतौर बानगी प्रस्तुत हैं एक ग़ज़ल की चंद लाइनें -
" सत्ता का उनमें इस क़दर छाया गुरूर है।
इन्सानियत का दुश्मन जालिम हुजूर है।।
मनमानी के सितम पर सुनता न समझता,
गद्दी से चिपकने का रखता शहूर है।।"
अनेकानेक साहित्यिक गतिविधियों में योगदान देने वाले, अनेक साहित्यिक संस्थाओं से सम्बद्ध रहने वाले डाॅ. प्रांजल ने कई कृतियों का वैदुष्यपूर्ण सम्पादन भी किया। 'अष्टांग भारती' के अनुसार चार कृतियों का नामोल्लेख इस प्रकार है -
1- 'गीतान्तर' सोपान प्रथम ( 1994 )
2- 'गीतान्तर' सोपान द्वितीय ( 1995 )
3- संघर्ष धीर ( काव्य ) ( 1996 )
4- उद्गार प्रणति ( काव्य ) ( 2008 )
ज्ञातव्य है कि 'संघर्ष धीर' और 'उद्गार प्रणति' डाॅ. प्रांजल के अग्रज कीर्तिशेष कवि रामकिशोर सिंह परिहार 'जिज्ञासु' द्वारा रचित रचनाएं हैं जिनके सम्यक सम्पादन और प्रकाशन का दायित्व डाॅ. प्रांजल ने निभाया। यह भी विशेष उल्लेखनीय है कि डॉ. प्रांजल का जीवनकाल अग्रज जिज्ञासु से भी 09 माह, 16 दिन कम रहा।
कीर्तिजयी डाॅ. प्रांजल को उनके साहित्यिक योगदान के लिए कई प्रतिष्ठित सम्मान व पुरस्कार प्राप्त हुए, परन्तु उन्होंने कभी इसको महत्व नहीं दिया। आज उनका भौतिक शरीर भले ही हमारे मध्य न हो, लेकिन आत्मा की अमरता को कौन नकार सकता है? अन्त में, उन्हीं की पंक्तियों से उनका स्मरण करते हुए यही कहूंगा कि -
" तू ! अजर- अमर है चिर अक्षय,
जगमग समग्र तेरा परिचय।
तम- सिन्धु पार जाते रहना
तेरे जीवन का दृढ़ निश्चय।।"
महेश चन्द्र त्रिपाठी