आंकड़े रच रही मंहगाई

सामयिक सृजन

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14 Nov '24
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आंकड़े रच रही मंहगाई ।

जारी है इसकी पहुनाई ।।

 

होती मूल्यों में सतत वृद्धि ।

नेताओं को दिखती समृद्धि ।।

बेरोजगार नवयुवकों को 

तरसाती है पाई-पाई ।

       आंकड़े रच रही मंहगाई।।

 

करने को दृढ़ अपनी सत्ता ।

सरकार बढ़ा देती भत्ता ।।

पर जो भत्ते से दूर उन्हें 

यह करना लगता दुखदाई ।

           आंकड़े रच रही मंहगाई।।

 

कृषकों को कभी न खुशहाली ।

बद से बदतर हालत माली ।।

असमय आती वृद्धावस्था ,

आए बिन तन में तरुणाई ।

              आंकड़े रच रही मंहगाई।।

 

जनता को मिलता नहीं न्याय ।

घटती जाती अनवरत आय ।।

अगड़ों-पिछड़ों के झगड़ों ने 

क्षति अकथनीय है पहुंचाई ।

             आंकड़े रच रही मंहगाई।।

 

मंहगी शिक्षा, मंहगा इलाज ।

बनकर जाते हैं बिगड़ काज ।।

बहुतायत कालनेमि की है ,

जन्मते न अब हातिमताई ।।

              आंकड़े रच रही मंहगाई।।

 

भगवान भरोसे है जनता ।

उसका कुछ काम नहीं बनता ।।

मतदाता बन मतदान करे ,

मुर्दनी मगर रहती छाई ।

              आंकड़े रच रही मंहगाई।।

@ महेश चन्द्र त्रिपाठी 

Category:Poem



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Written by Mahesh Chandra Tripathi

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