काश! पेड़ होता मैं ऐसा
लगते मुझमें मीठे फल ।
मेरे हरे-हरे पत्तों में
रहता भरा अनूठा जल ।।
पथिकों को छाया देता मैं
उनकी भूख-प्यास हरता ।
नयी चेतना, नव उमंग मैं
उनके अन्तस में भरता ।।
अगणित विहग बसेरा करते
मेरी टहनी-टहनी पर ।
मेरे दर्शन करने आते
दूर-दूर से नारी-नर ।।
मेरे सूख गये पत्तों से
रामबाण चूरन बनता ।
हर बीमारी में चूरन खा
रोगमुक्त होती जनता ।।
महेश चन्द्र त्रिपाठी
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