पैगाम लिखता हूँ

गजल

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15 Jun '24
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कुछ भी हो हर सफर का अंजाम लिखता हूं।
थके पैरों के जानिब से कोई मक़ाम लिखता हूं।

मंजिल ना मिले तो इसका गिला रास्तों से क्यूं
खुद अपने ही सर मैं सारे इल्जाम लिखता हूं।

हर शाम को मालूम है कि आएगी सहर भी
अंधेरों की हर कोशिश को नाकाम लिखता हूं।

शायद वो लफ्ज़ों को अपने दिल से पढ़ता है
बस यही सोचकर मैं कोई पैगाम लिखता हूं।

नहीं मिलती हैं दुआएं किसी भी बाजार में
चलो मैं अपनी दुआएं सभी के नाम लिखता हूं।

Category:Poem



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Written by Brajesh Kumar Srivastava

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