उसकी बाते करने से ज्यादा लिखता हूं !



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उसकी बाते करने से ज्यादा लिखता हूं..

मुझे उसका पत्थर होना भी पूजनीय लगता है..

मैं उसे केवल बुनना चाहता हूं, उधेड़बुन में तो वो खुद से ही पड़ी रहती हैं.…

उसे खुली हवा में घूमना अच्छा लगता है फिर भी खिड़की बंद रखती है…

जो कीचड़ में भी कमल सी खिलकर अपना अस्तित्व ढूंढ लेती है…

            मैंने उसे देखा है कई बार निराशा के बाद आशावान होते हुए। वह कई बार निराश, हताश, विचलित होती है उसकी मानसिक भावनाओ में उथल पुथल होता है लेकिन समय के साथ स्थिर हो जाती है। मुझे उसका ये परिवर्तन पहले भोलापन लगता था लेकिन असल में वह कमजोर दिखकर मजबूती भरा कार्य करती है। मैंने महसूस तब किया जब उसे खुलापन अच्छा लगता है फिर भी खिड़की बंद रखती है देखा बारिश पसंद है लेकिन भीगना नही...मैं उसकी इन भावनाओ की कद्र करता हूं लेकिन चिंता भी क्योंकि कभी कभी इंसान अपने भावनाओ को मिटते देख पत्थर बन जाती है, जो को वहम और जिद में परिवर्तित हो जाती है जिससे हमेशा रिश्तों में ही हार निश्चित नहीं बल्कि व्यक्ति का सामाजिक पतन शुरू हो जाता है और उसकी भावनाएं दूषित हो जाती हैं।

           फिर आप जो सोचते हैं, वैसा ही काम करते हैं। और जिस चीज के बारे में बड़ी गम्भीरता से सोचते हैं, वह आपके दिमाग मे चलने लगता है। आपका वह विचार आपका मस्तिष्क कई गुना बढ़ाता है। आप सोचते जाते हैं और फिर ख्वाबो की दुनिया मे डूबते जाते हैं।

Category:Mental Health



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Written by आत्मविश्वचेतस शोभित

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