जन्नत मुझको नहीं चाहिए

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15 Jun '24
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छोटी-मोटी पीड़ाएं मैं

प्रेमपूर्वक सह लूंगा

दोजख मुझको घर-सा होगा 

उसमें भी मैं रह लूंगा

*

जन्नत मुझको नहीं चाहिए

न ही बहत्तर हूरें ही

जो बारी-बारी से मुझ पर

प्रेम लुटाएं, घूरें भी

घरवाली-सी एक मिलेगी

तो उससे कुछ कह लूंगा 

दोजख मुझको घर-सा होगा 

उसमें भी मैं रह लूंगा।

 

मधु में नहीं नहाना मुझको

न ही मुझे मधु पीना है

तप रत रह समीर सेवन कर 

मुझे नर्क में जीना है 

डांट-डपट की दाहकता में

मैं भी थोड़ा दह लूंगा

दोजख मुझको घर-सा होगा 

उसमें भी मैं रह लूंगा।

 

अभ्यंजन की मुझे न आदत

चरण नहीं चपवाना है

दूध और घी की न जरूरत

पय बिन काम चलाना है 

काव्यपाठ से यमदूतों को

बहलाऊंगा, बहलूंगा

दोजख मुझको घर-सा होगा 

उसमें भी मैं रह लूंगा।

 

मुगदर नहीं भांजने मुझको

करना है व्यायाम नहीं

पड़े-पड़े कविता करनी है

करना है कुछ काम नहीं

मधुगंगा के तट पर प्रतिदिन 

शाम-सवेरे टहलूंगा

दोजख मुझको घर-सा होगा 

उसमें भी मैं रह लूंगा।

 

महेश चन्द्र त्रिपाठी

Category:Poem



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Written by Mahesh Chandra Tripathi

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