गर्मी के कहर में तपती धरती
इस वर्ष बेलगाम बढ़ती गर्मी के कहर ने मानव जीवन को कुछ ज्यादा ही प्रभावित किया है। गर्मी से बचाव के तरीके भी कम पड़ते दिखाई दिए। गर्मी के प्रकोप से धरती माता प्यास से तड़प रही है। प्यास लगने पर मनुष्य पानी पीकर अपनी प्यास बुझा लेता है, लेकिन धरती की प्यास बुझाने के लिए कोई भी कदम बढ़ाने के लिए तैयार नहीं है। उल्लेखनीय है कि धरती की प्यास बुझेगी, तब ही मानव की प्यास बुझेगी। क्योंकि यही धरती हमें पानी देती है। लेकिन ज़ब धरती की कोख में पानी बचेगा ही नहीं… तब पानी कैसे मिलेगा, यह विचार करने वाली बात है।
धरती हांफ रही है,
हम कहते उसे भारत माता,
पुत्र का धर्म भूल गए हम
धरती देती है सब कुछ
खाने और पीने के लिए,
हम लेना तो सीख गए माता से,
माता भी देती ही है,
वो नहीं देगी एक दिन
वो खुद भूखी है प्यासी है,
बेज़ुबान है…।
आज त्राहिमाम है,
कहीं पानी के लिए,
तो कहीं दो वक्त की रोटी के लिए,
एक एक बूँद कीमती है,
लेकिन अभी कीमत नहीं पता,
उसको पूछो जहां पानी नहीं है।
कहीं सहेज रहे हैं बूंद
तो कहीं दिखती बर्बादी…।
प्रकृति के लिए सब समान हैं,
फिर क्यों दिखती है असमानता,
कोई रोज धोता है अपना वाहन
कोई तलाश करता एक बूंद।
हम धरती की प्यास बुझाएं
पेड़ पौधे लगाएं,
यह धरती को राहत देगा,
समाज को भी तभी मिलेगा।
कविता का भाव यही है कि जो धरती माता हमारा पालन पोषण कर रही है। उसको हम क्या दे रहे हैं। भारत में तो लेनदेन की परंपरा रही है। हम प्रकृति से जितना ले रहे हैं, उसके अनुपात में हम कितना दे रहे हैं।
सब कुछ देगी यह धरती,
आगे भी देती रहेगी,
हम पेड़ तो लगा सकते हैं,
ये मत सोचो हमें क्या मिलेगा,
यह सोचो कि…
धरती क्या दे रही है।
आज हम सब्जी खाते हैं,
वो पेड़ पौधे हमने नहीं लगाए,
हम पानी पीते हैं,
वह भी हमने नहीं बनाया…।
किसी लगाया पेड़
और फल खा रहे हम,
ऐसा सबको करना होगा,
तभी देगी धरती।
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