"छींक मुझको भी आती है
छींक उनको भी आती है
हमारी-उनकी छींक में अन्तर है
हमारी छींक साधारण है
उनकी छींक में जादू-मन्तर है
हमारी छींक छोटी नाक की है
उनकी छींक बड़ी धाक की है
हमारी छींक हवा में खप जाती है
उनकी छींक अखबारों में छप जाती है।"
'दो छींकें' शीर्षक कविता से उद्धृत ये पंक्तियां हैं हास्य रसावतार चन्द्रभूषण त्रिवेदी 'रमई काका'की। रमई काका के व्यंग्य इतने चुटीले तथा मार्मिक होते थे कि पाठक अथवा श्रोता उनको पढ़-सुन कर न केवल तिलमिला जाता था, वरन् वह सहज गुदगुदी भी अनुभव करता था। वे लगभग पैंतीस वर्ष आकाशवाणी के लखनऊ केन्द्र में सेवारत रहे और 'लोकायतन' कार्यक्रम में 'बहिरे बाबा' उपनाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने समय-समय पर आकाशवाणी से प्रसारण हेतु नाटक, प्रहसन, नौटंकी, संवाद और कविताएं लिखकर अपार ख्याति अर्जित की। 'बुद्धू का दुशाला', 'बुद्धू का इण्टरव्यू', 'हरफनमौला' तथा 'तीन आलसी' नामक नाटक और प्रहसन साहित्य प्रेमी जनता में बहुत लोकप्रिय हुए थे। आकाशवाणी के अतिरिक्त कवि सम्मेलनों के माध्यम से भी उन्होंने जहां एक ओर जनता का मनोरंजन किया था, वहीं दूसरी ओर अपनी जनप्रिय कविताओं से सामाजिक कुरीतियों पर भी तीखे प्रहार किए थे। दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा, सती प्रथा, अनमेल विवाह, धार्मिक अन्धविश्वास जैसी कुरीतियों को कोसते हुए इन्हें समाप्त करने का आह्वान उन्होंने अपनी कई कविताओं में किया है। प्रस्तुत है पर्दा प्रथा के बारे में उनकी लम्बी कविता का एक अंश -
'न कक्कू अइसौ परदा चही।
दालि मा लोनु रहै कुछु फीक
यही ते स्वादु लाग ना नीक
कहा तब हम टाठी सरकाय
लोनु पहिती मा देव मिलाय
उई लोनु दिहिनि खीर मा छांड़ि
खीर ना जोगि खाय के रही,
न कक्कू अइसौ परदा चही।'
पर्दा (घूंघट) के कारण जो- जो परेशानियां व्यावहारिक जीवन में पैदा होती हैं, उन सभी का बड़ा रोचक चित्रण 'भिनसार' में संकलित इस कविता में देखने को मिलता है।
'भिनसार' में ही संकलित एक अन्य कविता 'पेट की पीर' भी उल्लेखनीय है। इस कविता में आम आदमी के प्रति सरकारी डॉक्टरों के उपेक्षा भाव को विस्तार से वर्णित किया गया है। दृष्टव्य हैं ये पंक्तियां -
'फिरि मेडिकल कालेजै गयेन
डाक्टर कहिन नहिंन खटिया खाली
हम कहा - अरे का सरकारौ मा
है खटियन कै कंगाली।
+++++
उइ देहाती कहि डांटि लिहिन
फिरि किहिन इशारा, जाव घरै
बिन खटिया भर्ती नहीं होत है
कोउ जियै चहै कोउ मैं ।'
02 फरवरी 1915 ई. को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के रावतपुर ग्राम में जन्मे रमई काका उत्तर प्रदेश सरकार के मासिक पत्र "उत्तर प्रदेश" तथा लखनऊ से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक "स्वतंत्र भारत सुमन" में क्रमशः 'गांव की गली' तथा 'गांंव की बतकही' नामक स्तंभ लिखा करते थे। उन्नाव जिले के पानी की प्रशंसा करते हुए उन्होंने लिखा है -
'ऊपर उठता तो रच देता
अम्बर में ध्वंस कहानी यह
नीचे उतरे तो भू उर्वर
उन्नाव जिले का पानी यह ।'
उन्हें अवधी तथा खड़ी बोली दोनों में लिखने की महारत हासिल थी। अपनी हास्यपूर्ण तथा व्यंग्यमयी रचनाओं के माध्यम से वे जिस वातावरण की सृष्टि करते थे, वह सर्वथा मनोमुग्धकारी होता था। सन् 1942 ई. मैं जब महात्मा गांधी ने 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का नारा दिया था, तब रमई काका ने इस नारे को आधार बनाकर जो कविता लिखी थी, वह जन-जन के हृदय में उतर गई थी। उन्होंने लिखा था -
"खटमल छाॅंड़ौ हमरी खटिया।
ना जाने कइसे तुम आयो, आपनि जाति बढ़ायो
मचवन मा तुम किला बनायो, घिरि गे सेरवा पटिया
............. खटमल छाॅंड़ौ हमरी खटिया।
भागा चाहौ तो तुम भागौ, भागौ अबै अंधेरा
उजियारे मा भागि न पइहौ, पीटब लइकै लठिया
................ खटमल छाॅंड़ौ हमरी खटिया।"
18 अप्रैल 1982 ई. को लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल में गोलोकवासी हुए रमई काका रसावतार थे। 'बौछार' उनकी सर्वाधिक चर्चित काव्यकृति है। इसके अतिरिक्त 'भिनसार', 'फुहार', 'नेताजी', 'गुलछर्रा', 'हास्य के छींटे', 'माटी के मोल', 'रतौंधी', 'कलुआ बैल', 'बहिरे बोधन बाबा', आदि उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं। 'नेताजी' की रचना वीर छंद - आल्हा शैली - में की गई है। "हम कहा बड़ा ध्वाखा होइगा" तथा " बुढ़ऊ का विवाह" जैसी रचनाएं आज भी लोकमानस में रमई काका को जीवित बनाए हुए हैं।
हास्य-व्यंग्य के रचनाकारों तथा रचना प्रेमियों के लिए उनकी कविताएं युगों- युगों तक संजीवनी देती रहेंगी। उनकी कुछ कविताओं का काव्य सौन्दर्य देखकर बड़े-बड़े काव्यालोचक दांतों तले उंगली दबा लेते हैं। यथा -
'खटिया तरे लखति हैं लरिका करैं तमाशा
किरणै चुवाय दीन्हेनि हैं धूप के बताशा
पूरब कै लालि गइया नभ मा पन्हाय गै है
किरननि कै धार दुहि कै धरती नहाय गै है।'
अन्त में, एक उच्च कोटि के कवि, संगीतज्ञ, नाटककार, और अभिनेता के रूप में जन-जन के हृदय में रमकर 'रमई' नाम पाने वाले और समय के साथ 'काका' बनकर ख्याति की बुलंदियां छूने वाले रमई काका को अपनी प्रणामांजलि अर्पित करते हुए मैं उन्हीं की दो पंक्तियां उद्धृत कर लोकमंगल की कामना करता हूं -
'बरखा तो वहै अच्छी, सब ठांव मेघ बरसैं
कन-कन लखै हरेरी, जन-जन के प्रान बिहंसैं।'
@ महेश चन्द्र त्रिपाठी
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