गुरुपूर्णिमा: गुरु के चरणों में समर्पण का पर्व
✍️ रघुवीर सिंह पंवार
भारतवर्ष में अनेक पर्व मनाए जाते हैं, किंतु गुरुपूर्णिमा का स्थान विशेष है। यह पर्व केवल धार्मिक या सांस्कृतिक नहीं, बल्कि जीवन के उस मूल आदर्श को समर्पित है जिसने हमें ‘अंधकार से प्रकाश’ की ओर बढ़ने का मार्ग दिखाया – गुरु।
गुरु न केवल शिक्षाविद होता है, बल्कि वह एक मार्गदर्शक, प्रेरणास्रोत और जीवन निर्माता होता है। गुरु ही है जो हमें आत्मा की पहचान कराता है, सच्चाई से परिचय कराता है और हमें उस राह पर चलना सिखाता है जिस पर चलकर जीवन सार्थक होता है।
संस्कृत में 'गु' का अर्थ होता है अंधकार और 'रु' का अर्थ होता है प्रकाश। अर्थात गुरु वह है जो अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश फैलाता है।
प्राचीन भारत में गुरु-शिष्य परंपरा अत्यंत आदरणीय रही है। ऋषि वशिष्ठ से लेकर गुरु द्रोणाचार्य, चाणक्य और आधुनिक समय में स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस तक – गुरु की भूमिका हमेशा युगों को दिशा देने वाली रही है।
गुरुपूर्णिमा हिंदू पंचांग के अनुसार आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है। मान्यता है कि इस दिन महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था, जिन्होंने वेदों का विभाजन कर उन्हें चार भागों में व्यवस्थित किया और महाभारत जैसे महाकाव्य की रचना की। इसलिए इस दिन को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है।
समय के साथ गुरु का स्वरूप भी बदला है। आज विद्यालयों, विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के रूप में, जीवन में अनुभव देने वाले माता-पिता, समाज में पथ दिखाने वाले सज्जन पुरुष या पुस्तकों के माध्यम से हमें राह दिखाने वाली प्रेरणाएँ – सभी हमारे गुरु हो सकते हैं।
जरूरत इस बात की है कि हम उन्हें पहचानें, सम्मान दें और उनके बताए मार्ग पर चलें।
यह पर्व महज एक औपचारिकता नहीं, बल्कि आभार व्यक्त करने का अवसर है – उन सभी व्यक्तित्वों के प्रति जिन्होंने हमारे जीवन को दिशा दी। यह दिन हमें याद दिलाता है कि ज्ञान का आदर करें, विनम्रता अपनाएं और सदैव सीखने की भावना बनाए रखें।
अंत में, यही कहूंगा –
"गुरु बिना ज्ञान नहीं, और ज्ञान बिना जीवन नहीं।
इसलिए गुरुपूर्णिमा केवल पर्व नहीं, जीवन को सार्थक करने की प्रेरणा है।"
लेखक सम्पादत साप्ताहिक समाचार थीम
0 Followers
0 Following