महाकवि डॉ कुंवर बेचैन जी को उनकी जयंती पर नमन

संस्मरण



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अच्छा गुरू वही होता है जो स्वयं एक अच्छा शिष्य भी रहा हो। जिसने अपने गुरुओं को मान-सम्मान दिया हो। जिसने उनके द्वारा प्रदत्त हर सीख ग्रहण की हो। ऐसे व्यक्ति निश्चित ही स्वयं भी अपने शिष्यों का आदर पाते हैं। अच्छे गुरूओं की एक पहचान ये भी होती है कि वो अपने ज्ञान द्वारा शिष्यों के मार्ग में आने वाले सभी कंटक दूर कर के उनकी उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। कुछ ऐसी ही छवि थी हम सब के प्रिय आदरणीय डॉ कुंवर बेचैन जी की भी। वो एक अच्छे गुरु भी थे और अच्छे शिष्य भी। यही कारण था कि उनके गुरूजन हों या शिष्य मंडली वो सभी को समान रूप से प्रिय थे।

सफलता सभी को रास नहीं आती, कुछ लोग सफलता प्राप्त कर के जमीं पर पाँव रखना भूल जाते हैं। उन पर सफलता का नशा इतना चढ़ जाता है कि वो ये भूल जाते हैं कि सफलता या असफलता क्षणिक होती है, स्थाई नहीं। सफलता और असफलता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जीवन की इस महत्वपूर्ण सीख को कई लोग अभिमान के वशीभूत होकर भूल जाते हैं। जबकि सज्जन, संस्कारी, जमीन से जुड़े सरल स्वभाव के व्यक्ति ऐसी भूल कदापि नहीं करते। वो सूर्य के समान एक से ही रहते हैं। जैसे सूर्योदय का समय हो या सूर्यास्त का, दोनों ही अवसरों पर सूर्य एक समान रहता है, ठीक वैसे ही सच्चे ज्ञानी भी हर परिस्थिति में एक समान रहते हैं। वो न तो असफलता से डरते हैं और न ही अपनी सफलता पर अहंकार करते हैं। आदरणीय डॉ कुंवर बेचैन जी ने भी जीवन में मिली अपार सफलता पर कभी अभिमान नहीं किया। उन्होंने अपने पाँव हमेशा जमीन पर ही रखे। वो सदैव जमीन से जुड़े रहे। जीवन में इतनी सफलता प्राप्त करने पर भी वो अपने संघर्ष के दिनों के साथियों को कभी नहीं भूले। पूरा जीवन उन्होंने अग्रजों को सम्मान और अनुजों को स्नेह प्रदान किया।

आदरणीय डॉ कुंवर बेचैन जी के अंदर उपरोक्त सभी गुण कूट-कूटकर भरे थे, इसका मैं स्वयं साक्षी हूँ। उनके जमीन से जुड़ाव की झलक आप उनकी रचनाओं में भी देख सकते हैं। उनकी भाषा-शैली से भी यही सिद्ध होता है। मैं इसका एक उदाहरण देता हूँ, प्रायः डंडी या छड़ी कहे जाने वाले लकड़ी के टुकड़े को हमारे चन्दौसी की स्थानीय भाषा में शंटी कहते हैं। आदरणीय डॉ कुंवर बेचैन जी ने अपनी रचना में लोकप्रिय शब्द छड़ी का प्रयोग न करके शंटी शब्द का प्रयोग किया। ऐसे ही कई शब्द हैं जो उन्होंने अपनी कृतियों में प्रयोग किए, ऐसे ही कई शब्द उनकी कृतियों को विशिष्ट व विरल बनाते रहे।

जीवन में इतने पुरस्कार और सम्मान प्राप्त करने की उपलब्धि हो, या फिर देश-विदेश के पाठ्यक्रमों में स्थान पाने की उपलब्धि, उन्होंने कभी भी किसी बात पर भी अभिमान नहीं किया। जबकि अपने जीवनकाल में ही किसी पाठ्यक्रम में शामिल होना विरले ही सम्भव होता है, किंतु आदरणीय डॉ कुंवर बेचैन जी की लेखनी ने ये भी आसानी से सम्भव कर दिखाया। इस बात के लिए तो उनके आलोचक भी उनके कायल थे।

कई संस्मरण ऐसे हैं, जिनसे उनकी व मेरी  यादें जुड़ीं हैं। पहला संस्मरण मेरे लिए कभी न भूलने वाला है। मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री हेम चन्द्र शर्मा जी हमारे शहर चन्दौसी के जाने-माने एस. एम. इंटर कॉलेज में प्रवक्ता (लेक्चरर) के पद पर कार्यरत थे। हिंदी और संस्कृत भाषा में उन्हें महारत हासिल थी। इसके अतिरिक्त वो एक साहित्यकार और साहित्य प्रेमी भी थे। शहर में होने वाले कवि सम्मेलन हों, कवि गोष्ठियां हों, कोई साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन हो या अन्य कोई गतिविधि। मेरे पिताजी प्रत्येक साहित्यिक गतिविधियों में हर सम्भव योगदान देते थे। मेरे पिताजी के इन्हीं गुणों के कारण उस समय छात्र रहे कुंवर बेचैन जी भी मेरे पिताजी के कायल थे और उनका काफी सम्मान करते थे।

एक लंबे अंतराल के बाद एक बार जब पिताजी की बेचैन जी से भेंट हुई तो मैं भी पिताजी के साथ था। उनके और उनकी रचनाओं के विषय में मैंने काफी पढ़ा-सुना था, किंतु मेरी आदरणीय कुंवर बेचैन जी से ये पहली सीधी भेंट थी। बेचैन चाचाजी ने पिताश्री को इतने वर्षों बाद देखने पर भी देखते ही तुरंत पहचान लिया। उन्होंने पिताश्री को यथोचित सम्मान दिया, और हम परिजनों को स्नेह और आशीष प्रदान किया। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मेरी साहित्य में रुचि है और उनकी कृतियाँ मुझे काफी पसंद आती हैं तो वो काफी प्रसन्न हुए।

इसके उपरांत जब भी मेरी उनसे मुलाकात होती तो उनका स्नेह एवं आशीष अवश्य प्राप्त होता। उनकी विनम्रता देखकर मैं गदगद हो उठता। मैंने जब पहली बार अपने पुत्र साहित्य शर्मा को  उनसे आशीर्वाद दिलाया और बताया कि मैंने अपने पुत्र का नाम साहित्य रखा है तो वो अपार प्रसन्न हुए। उन्होंने मुस्कुराते हुए मेरे साहित्य प्रेम की प्रशंसा की और मुझसे बोले कि "पुनीत तुमने बेटे का नाम काफी अलग और अच्छा रखा है, ये तुम्हारे साहित्य के प्रति समर्पण को दर्शाता है।"

मेरे प्रति उनका स्नेह एवं आशीष, तथा उनके प्रति मेरी श्रद्धा एवं प्रेम भावना सदैव बनी रही। मेरे लिए वो एक ऐसे सूर्य के समान थे, जिसने न सिर्फ मुझे बल्कि मेरे जैसे न जाने कितने लोगों को, सूर्य की भांति प्रकाश एवं ऊर्जा प्रदान की। इस बार नूतन वर्ष पर जब उनका आशीष सन्देश प्राप्त हुआ तो मुझे कतई आभास नहीं था कि ये उनका मेरे लिए भेजा अंतिम सन्देश होगा।

एक अन्य संस्मरण जो मैं आपसे सांझा कर रहा हूँ वो बेचैन चाचाजी के बचपन से जुड़ा है। ये बात है पचास के दशक की जब आदरणीय डॉ कुंवर बेचैन जी एक मेधावी छात्र हुआ करते थे। वो हमारे शहर चन्दौसी के चन्दौसी इंटर कॉलेज (तत्कालीन बारहसैनी हायर सेकेंडरी स्कूल) में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। जैसा कि मैंने पूर्व में भी उल्लेख किया है कि वो अपने सदगुणों के कारण अपने गुरुओं के प्रिय शिष्य थे। उनके कुछ गुणी गुरुओं को जो स्वयं साहित्य प्रेमी और साहित्यकार भी थे, उनकी प्रतिभा का अहसास हो गया था। इनमें उनके तत्कालीन कक्षाध्यापक आदरणीय फूफाजी स्वर्गीय श्री महेश्वर दयाल शर्मा जी एवं स्कूल की मैगजीन के एडिटर आदरणीय ताऊजी स्वर्गीय श्री ब्रह्म स्वरूप शर्मा जी प्रमुख थे। उस समय के 'कुंवर बहादुर सक्सेना' को उनके प्रिय गुरुजन प्यार से "कुंवर बहादुर" के नाम से बुलाते थे।

हुआ ये कि सन 1955 में जब आदरणीय बेचैन जी कक्षा नौ के विद्यार्थी थे, तब एक दिन उन्होंने स्कूल की मैगजीन में प्रकाशित करवाने हेतु एक रचना लिखकर दी। रचना इतनी शानदार और परिपक्व थी कि उनकी प्रतिभा को पहचानने वाले उनके कक्षाध्यापक स्वर्गीय श्री महेश्वर दयाल शर्मा जी को भी विश्वास नहीं हुआ कि एक बालक इतनी अच्छी और परिपक्व रचना कैसे लिख सकता है? हालांकि उन्हें लगता अवश्य था कि आगे चलकर ये बालक एक दिन अपने परिवार के साथ-साथ स्कूल और नगर का नाम भी रोशन करेगा, लेकिन इतनी कम उम्र में इतनी गहरी सोच और परिपक्वता? उन्हें ये अविश्वसनीय लग रहा था। उन्हें लगा कि उनके प्रिय छात्र ने ये रचना कहीं से उड़ाई है? जब उन्होंने आदरणीय बेचैन जी से पूछा कि "बच्चू किसकी कृति उड़ा लाए?" तो उन्होंने जबाब दिया "नहीं, गुरुदेव ये मेरी स्वयं की मूल रचना है।" इस पर स्वर्गीय श्री महेश्वर दयाल जी ने उनकी परीक्षा लेने का निश्चय किया। संयोगवश उस दिन तुलसी दास जयंती भी थी, अतः उन्हें तुलसी दास पर कुछ लिखकर लाने का आदेश देकर स्कूल के मैदान में भेज दिया गया। किंतु काफी देर प्रयास करने पर भी बेचैन जी को कुछ सुझा ही नहीं। अतः वो निराश होकर कक्षा में वापस आ गए। लेकिन कक्षाध्यापक स्वर्गीय शर्मा जी को विश्वास था कि वो असफलता को पीछे छोड़कर कुछ अच्छा अवश्य लिखेंगे, क्योंकि उन्होंने पूत के पाँव पालने में ही देख लिए थे। अतः उन्होंने बेचैन जी को लिखकर लाने के लिए पुनः फील्ड में वापस भेज दिया। इस बार उनका अपने शिष्य के प्रति विश्वास सही साबित हुआ। आदरणीय बेचैन जी ने न सिर्फ लिखा, बल्कि इतना अच्छा लिखा कि इसके लिए उस दिन तुलसी दास जयंती पर हुई प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार उन्हें ही प्राप्त हुआ।

यूँ तो मुझे उनसे जुड़े कई संस्मरण याद आ रहे हैं। किंतु शब्दों की विवशता के कारण सभी संस्मरणों का वर्णन करना सम्भव नहीं है। उनकी छवि थी ही ऐसी कि उनको जानने वाले सभी व्यक्तियों की उनसे अनगिनत यादें जुड़ी हुई हैं।

आदरणीय डॉ कुंवर बेचैन जी के लिए 'थे' शब्द प्रयोग करना बड़ा अजीब लग रहा है, क्योंकि मन अभी भी ये स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि अब वो हमारे बीच नहीं हैं। उनके हमें छोड़ कर चले जाने की बात सोचते ही मन बेचैन हो जाता है। ऐसा लगता है कि जैसे आदरणीय चाचाजी अभी किसी नई कृति पर कार्य करने में व्यस्त हो गए हैं और कृति पूरी होते ही वो हमारे सम्मुख आकर अपनी कृति के माध्यम से हमें पुनः आंनद की अनुभूति कराएंगे। किंतु कटु एवं परम सत्य यही है कि अनहोनी तो घटित हो चुकी है, उसे अब परिवर्तित नहीं किया जा सकता। उनके जाने से हिंदी साहित्य की अपूर्णीय क्षति हुई है। वो एक ऐसी रिक्तता छोड़ गए, जिसका भरना कतई आसान नहीं है। उनके जाने से गीत और ग़ज़ल की दुनिया का एक चमकता सूर्य अस्त हो गया है और इस सूर्य के अस्त होने से साहित्य की दुनिया में अंधकार छा गया है। किंतु एक सत्य यह भी है कि आदरणीय डॉ कुंवर बेचैन जी अब भले ही सशरीर हमारे साथ न हों, लेकिन अपनी अमूल्य, अविस्मरणीय और अमर रचनाओं के माध्यम से वो हमारी स्मृतियों में सदैव जीवित रहेंगे। मुझे ये भी विश्वास है कि वो जहाँ भी रहेंगे हम जैसे अनुजों पर अपना स्नेह और आशीष सदैव बनाए रखेंगे।

आदरणीय चाचाजी डॉ कुंवर बेचैन जी को शब्द श्रद्धांजलि देते हुए यही कहूँगा कि-
"पहले तो अकेले आप ही "बेचैन" थे,
आपके जाने से सभी "बेचैन" हो गए।"

अंत में आदरणीय डॉ कुंवर बेचैन जी को उनके जन्मदिवस पर सादर नमन करते हुए भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।

- काफिर चंदौसवी (पुनीत शर्मा)

Category:Literature



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Written by पुनीत शर्मा (काफिर चंदौसवी)

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