रब
रब सब का हैं
फिर ये फर्क क्यों ?
कोई अर्श पर तो
कोई फर्श पर क्यों ?
हर शख़्स खुद से
ना उम्मीद सा क्यों है ?
दुआ में उठते है हाथ कई पर
क़बूलियत का समय
किसी एक का क्यों है ?
जो रमता है हर जगह फिर भी
क्यों ढूँढे हैं उसे जर्रे-जर्रे में
सुना है रब मन में बसता है
खुद से रूबरू हो जाओं
फिर वो तुझसे ही वाबस्ता हैं ।।
स्नेह ज्योति
कभी आंसमा में ढूँढता हैं कभी सपनों में खोजता हैं यें दिल हर पल ना जाने क्या-क्या सोचता है भीड़ मे तन्हाई में अपने को ही खोजता हैं
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