भंगुर यौवन के झाॅंसे में
रिश्ते जोड़े नए-नए
सबसे मिलते रहे उम्रभर
खुद से मिलना भूल गए
यौवन बीता, वार्धक्य की
दस्तक पड़ी सुनाई जब
कहाॅं-कहाॅं पर चूक हुई है
बोध हुआ है मुझको अब
अब जब निशि में नींद न आती
मैं खुद से बतियाता हूॅं
यदा-कदा खुद से मिलने का
मैं अवसर पा जाता हूॅं
खुद से मिलना बड़ी बात है
बड़ी चाह होती पूरी
अब सन्तुष्ट सदा रहता मैं
भाग गई हर मजबूरी
महेश चन्द्र त्रिपाठी
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