साँस नहीं अखण्ड किंतु
ज्वलन्त है प्रचण्ड है।
जब तलक न रुके ये पग
और न हो प्राण विलग
तब तक ये आन बान शान है
क्या पता कब कहाँ
कैसे क्यों किसलिए
अंतिम मेरी कोई साँस हो
चलते हुए हैं दिन गुरु
रुक गए तो शाम है।
अंतिम यही परिणाम है।।
विजय पराजय शून्य है
कर्म ही अमूल्य है
धर्म अधर्म का लेखा जोखा
पाप पुण्य का भार होगा
एक तुला पर ही ये सब सवार हैं।
कर्म ही इस जग में महान है।।
न थकेंगे न रुकेंगे
सिर नहीं हर कहीं झुकेंगे
भले चाहे तन से ये सिर उतार दो
मुझे मृत्यु का भय नहीं
भले हमारी जय नहीं
किंतु रणदृश्य हो जाएगा
जो एक बार मेरी हुँकार हो
गुरु मेरे किरदार की
एक छोटी सी पहचान है
जो किरदार धूमिल हो गया
तो साँसों का विराम है।।
अंतिम यही परिणाम है…✍️
वास्तविक नाम गौरव सिंह है किन्तु लेखन "गुरु" के नाम से करता हूँ। कोई प्रसिद्ध लेखक या साहित्यकार नहीं हूँ। अपने मन की भावनाओं को व जीवन के विभिन्न अनुभवों को शब्दों में पिरोने का प्रयास करते हैं। आशा है आप सभी को मेरा लेख पसन्द आएगा और आप सभी का प्यार व आशीर्वाद सदा मिलता रहेगा। धन्यवाद!
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