भारत में समाजवादी आन्दोलन के जनक : डॉ. राममनोहर लोहिया

जन्मदिवस पर सश्रद्ध स्मरण

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23 Mar '25
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                    "हिन्दुस्तान की राजनीति में तब सफाई और भलाई आएगी, जब किसी पार्टी के खराब काम की निन्दा उसी पार्टी के लोग करें," यह कहने और करने वाले भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी, प्रखर चिन्तक तथा समाजवादी राजनेता डॉ. राममनोहर लोहिया का जन्म अकबरपुर, जिला फैजाबाद (अयोध्या ) में 23 मार्च 1910 को हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा अकबरपुर की पाठशाला और मुम्बई के मारवाड़ी स्कूल में हुई थी और उच्च शिक्षा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय व कलकत्ता विश्वविद्यालय में। उन्होंने 1932 में 'नमक सत्याग्रह' विषय पर अपना शोध प्रबन्ध पूरा कर हम्बोल्ट विश्वविद्यालय बर्लिन से डाॅक्टरेट की उपाधि प्राप्त की थी।

                  1933 में डाॅ. लोहिया की स्वदेश वापसी हुई। जब वे मद्रास (चेन्नई) पहुंचे, खाली हाथ थे। रास्ते में उनका सामान जब्त कर लिया गया था। अतः समुद्री जहाज से उतरकर वे "हिन्दू"  समाचारपत्र के कार्यालय पहुंचे और सम्पादक के वार्ता कर उन्हें दो लेख लिखकर दिए। सम्पादक महोदय से पारिश्रमिक स्वरूप 25 रुपए का भुगतान प्राप्त हुआ और तब वे वहां से कलकत्ता गए।

                 शीघ्र ही वे आजीविका की तलाश में बनारस पहुंचे और पं. मदनमोहन मालवीय से मुलाकात की। मालवीय जी ने उन्हें रामेश्वरदास बिड़ला से मिलाया जिन्होंने नौकरी के रूप में उन्हें अपना निजी सचिव बनाने का प्रस्ताव रखा। दो सप्ताह तक साथ रहने के पश्चात डॉ. लोहिया ने उनका निजी सचिव बनने से इंकार कर दिया। तदनन्तर वे अपने पिता के मित्र सेठ जमुनालाल बजाज के पास गए। बजाज ने उन्हें महात्मा गांधी से मिलवाया और उनसे कहा कि यह लड़का राजनीति करना चाहता है।

                 1934 में डाॅ. लोहिया ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य के रूप में राजनीति में- साथ ही स्वतंत्रता आन्दोलन में- प्रवेश किया। डॉ. लोहिया विश्वयुद्ध में दोनों गुटों से अलग रहने की नीति के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने 1942 में 'भारत छोड़ो आंदोलन' का भूमिगत रहकर संचालन किया, गिरफ्तारी बाद लाहौर जेल में भीषण यंत्रणाएं सहीं और देश के विभाजन का दंश झेलने को विवश हुए।

                  स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और फिर सोशलिस्ट पार्टी के मंचों से विपक्ष के प्रखर नेता के रूप में डॉ. लोहिया आजीवन सक्रिय रहे। नेहरू सरकार से तीव्र मतभेद के कारण सरकार के रोष तथा बुद्धिजीवियों की उपेक्षा के भागी बने। सादा जीवन, सृजनशील मस्तिष्क और अथक परिश्रम के कारण वे विपक्ष की राजनीति के केन्द्र में रहे। लोकतंत्र और समाजवाद की नींव को मजबूती प्रदान करने वालों में उनका नाम सर्वोपरि है। उनके समाजवादी आन्दोलन की संकल्पना के मूल में अनिवार्यतः विचार और कर्म की उभय उपस्थिति थी और उन्होंने इसे यावज्जीवन अपने आचरण में बनाए रखा।

                    अपने समकालीन राजनेताओं में डाॅ. लोहिया मौलिक विचारक थे। यद्यपि वे जर्मनी से पढ़कर आए थे, तथापि उनके मन में भारत के सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रति अनन्य अनुराग था। शिवरात्रि पर चित्रकूट में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाला रामायण मेला उन्हीं की संकल्पना का प्रतिफल है। वे 'गोआ मुक्ति आन्दोलन' और नेपाल के लोकतांत्रिक आन्दोलन के अगुआ थे। सदियों से नींद में पड़े विशाल जनमानस में राजनीतिक चेतना जगाने का क्रांतिकारी कार्य वे मृत्युपर्यन्त करते रहे। उनका निधन 12 अक्टूबर 1967 को हुआ।

                  सन् 1963 से 1967 तक लोकसभा के सदस्य रहे डॉ. लोहिया राजनीति की गंदी गली में भी शुद्ध आचरण की बात करते थे। वे केवल एक चिन्तक ही नहीं, एक कर्मवीर थे। देश में गैर-कांग्रेसवाद की अलख जगाने वाले डॉ. लोहिया ने ‘अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन’ के दौरान कहा था, “मैं चाहूंगा कि हिन्दुस्तान के साधारण लोग अपने अंग्रेजी के अज्ञान पर लजाएं नहीं, बल्कि गर्व करें। इस सामंती भाषा को उन्हीं के लिए छोड़ दें जिनके मां-बाप अगर शरीर से नहीं तो आत्मा से अंग्रेज रहे हैं ।”

                समूची मानवता की एकता के प्रति दृढ़ विश्वास के आग्रही डॉ. लोहिया ने 'कांग्रेस सोशलिस्ट जन' तथा 'मैनकाइण्ड' आदि पत्रों का कुशल सम्पादन किया और 'मार्क्स गांधी और समाजवाद', 'जातिप्रथा', 'इतिहास-चक्र', 'विदेश नीति', 'भारत चीन और उत्तरी सीमाएं', 'राजनीति में फुर्सत के क्षण' आदि पुस्तकों का प्रणयन किया। इसके अतिरिक्त समाजवादी सम्मेलनों, प्रशिक्षण शिविरों तथा लोकसभा में दिये गये भाषणों के रूप में उपलब्ध विपुल साहित्य आज के राजनेताओं के लिए ही नहीं, भविष्य के राजनेताओं के लिए भी मार्गदर्शन का कार्य करेगा।

                 अन्त में, मैं डाॅ. राममनोहर लोहिया की सहयोगी रही लोकसभा सदस्या तारकेश्वरी सिन्हा को उद्धृत करते हुए अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा, "....... मैं जब उनके पार्थिव शरीर के साथ बिजली-शवदाह गृह की तरफ बढ़ रही थी तो उनके बारे में अपने मन में यही गुनगुना रही थी -   “मजनूं तो मर गया है, जंगल उदास है ।”

     "लैला रुदाली गा रही, कोई न पास है ।।"

©® महेश चन्द्र त्रिपाठी 

                   

           

Category:Leadership



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Written by Mahesh Chandra Tripathi

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