चाहे जितनी तेज धूप हो, सागर नहीं सुखा पाती है।
संकल्पी के सम्मुख आकर, हर बाधा मुॅंह की खाती है।।
हम संकल्पी बनें, बनाएं
भय न मौत से भी हम खाएं
खेल खेल में जिएं जिन्दगी
मौज मनाएं, नाचें- गाएं
कुण्ठित भाव न लाएं मन में, कठिनाई आती-जाती है।
संकल्पी के सम्मुख आकर, हर बाधा मुॅंह की खाती है।।
हीरे-सा मानव जीवन है
मोती जैसा मानव मन है
परमपिता की देन अनूठी
मानव की काया कंचन है
नियति नटी कर्मानुसार ही, सबको सुख-दुख पहुॅंचाती है।
संकल्पी के सम्मुख आकर, हर बाधा मुॅंह की खाती है।।
काम-क्रोध-मद-मत्सर त्यागें
संत जगाते हैं हम जागें
भारत विश्वगुरू बन जाए
यह वरदान जागकर माॅंगें
संतजनों की सीख निरन्तर, जन-जन का उर उमगाती है।
संकल्पी के सम्मुख आकर, हर बाधा मुॅंह की खाती है।।
संतों ने ही सदा जगाया
ज्ञान अनूठा हमें सुनाया
देह नहीं, हम सब आत्मा हैं
सबको इसका बोध कराया
संतों-सा जीवन जीने की, इच्छा अनुदिन गहराती है।
संकल्पी के सम्मुख आकर, हर बाधा मुॅंह की खाती है।।
गीता जिसे समझ में आती
उसकी हर शंका मिट जाती
परमात्मा की शरण ग्रहण कर
अपने में परमात्म जगाती
दुनिया को सन्मार्ग सुझाकर, 'ओऽम् शांति' ध्वज फहराती है।
संकल्पी के सम्मुख आकर, हर बाधा मुॅंह की खाती है।।
@ महेश चन्द्र त्रिपाठी
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