हम मालिक हैं अपने मन के
नहीं किसी के हम प्रतिकूल ।
किसी निरर्थक बात को कभी
देते नहीं स्वप्न में तूल ।।
जीते हैं हम वर्तमान में
रह देहाभिमान से दूर ।
हर प्रतिकूल परिस्थिति का हम
करें सामना बनकर शूर ।।
जो कुछ हम देते समाज को
वही लौटकर होता प्राप्त ।
परमपिता की सत्ता सारे
भूमण्डल में है परिव्याप्त ।।
आओ बनें स्वावलम्बी हम
लें हम अपने को पहचान ।
परमात्मा से बड़ा न कोई
फैलाएं जग में यह ज्ञान ।।
निर्भयता लाएं अपने में
पाएं जीवन का आनन्द ।
परमात्मा की याद न भूले ,
उन्नति की गति रहे अमन्द ।।
ईश भजन में पारंगत बन
पाएं भवबाधा से त्राण ।
अगम अपार ज्ञान की महिमा
गाएं, करें जगत-कल्याण ।।
हर चिन्तन का सार यही है
और यही है सच्चा ज्ञान ।
हममें शक्ति अकूत समायी ,
परम पिता की हम सन्तान ।।
@ महेश चन्द्र त्रिपाठी
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