विश्व इतिहास में कई ऐसे साम्राज्य अस्तित्व में आये, जिन्होंने एक विशाल क्षेत्र में अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। कई सम्राटों ने अपने अद्वितीय नेतृत्व से इतिहास में लीक खींच दी, तो कई अपनी क्रूरता के लिए जाने गए। हमें विश्व के कई सम्राटों के बारे में आज जानकारी प्राप्त है, जैसे फ्रांस के नेपोलियन, मंगोलिया के चंगेज़ खान आदि।
लेकिन विश्व के तमाम राजवंशों और साम्राज्यों की सूची में एक भारतीय साम्राज्य एक अलग ही पहचान रखता है। ये पहचान इस साम्राज्य के विशाल सीमाक्षेत्र के लिए तो है ही, साथ ही साथ इसकी एक बड़ी वजह है इस साम्राज्य के राजाओं द्वारा किया गया कुशल नेतृत्व।
हम बात कर रहे हैं भारत के सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण राजवंशों में से एक मौर्य राजवंश की। भारतीय लोकतंत्र के प्रतीकों में भी मौर्य राजवंश की छाप अलग ही दिखाई पड़ती है। मौर्य सम्राट अशोक द्वारा निर्मित करवाया गया सारनाथ स्थित अशोक स्तम्भ आज भारत का राजचिन्ह है। देश के राष्ट्रीय ध्वज पर नज़र आने वाला चक्र, सम्राट अशोक की धम्म-नीति से प्रेरित धर्मचक्र है।
मौर्य साम्राज्य विद्रोह से खड़ा हुआ था। ये विद्रोह क्या था, और कैसे तीन सम्राटों के बाद ही इस विशाल साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया। इस पूरे लेख में हम इसी बात को जानने का प्रयास करेंगे।
मगध साम्राज्य और नन्द वंश:-
प्राचीन काल में भारत कई छोटी बड़ी जनपदों में बँटा हुआ था, जिनमें से सोलह बड़ी जनपदों को महाजनपद कहा जाता था। इन सोलह महाजनपदों में से सबसे महत्वपूर्ण मगध जनपद है। भारतीय इतिहास का एक बड़ा हिस्सा मगध जनपद के इर्द-गिर्द ही घूमता है। तब का मगध आज का बिहार कहा जा सकता है। भारतीय इतिहास की आधिकारिक शुरुआत मगध के ही प्राचीन राजवंशों से होती है, जिसमें हर्यंक, शिशुनाग आदि वंशों और बिम्बिसार, अजातशत्रु जैसे सम्राटों का उल्लेख मिलता है।
345 ईसा पूर्व, मगध पर एक नए राजवंश का अधिकार हो गया। ये राजवंश था, नन्द वंश, जिसके प्रथम सम्राट थे महापद्मनंद। महापद्मनंद को इतिहास में दुसरे परशुराम का दर्जा हासिल है। इसकी वजह ये है कि वे किसी भी क्षत्रिय वंश से ताल्लुक नहीं रखते थे, और अपने शासन में उन्होंने कई क्षत्रिय राजाओं को युद्ध में मृत्यु दी थी। महापद्मनंद ने एकराट, सर्वक्षत्रांतक जैसी उपाधियाँ धारण की थीं। नन्द वंश के पास विराट सैन्यबल और अपार धन था। नन्द राजवंश के कुल दस राजाओं ने मगध पर शासन किया, जिनमें से धननंद अंतिम था।
धननंद, सिकंदर और कौटिल्य:
महापद्मनंद के पश्चात मगध की गद्दी पर 10 और नन्द राजाओं ने शासन किया। करीब 329 ईसा पूर्व मगध की राजगद्दी पर अंतिम नन्द राजा धनानंद आसीन हुआ। स्वभाव से अहंकारी और विलासी राजा धननंद ने अपनी प्रजा का दमन करना शुरू कर दिया। वह केवल भोग-विलास में ही अपने दिन व्यतीत करता था। शुरू में धननंद ने कुछ राज्यों को अपने नियंत्रण में अवश्य लिया, लेकिन फिर उसका ध्यान प्रजा और राज्य से हट गया।
इस बीच भारतवर्ष के उत्तर पश्चिमी इलाके में, सिंधु नदी के उस पार मकदूनिया ( यूनान) से विश्व विजय का स्वप्न लेकर आये सिकंदर ने 326 ईसा पूर्व में आक्रमण कर दिया। सिकंदर ने तक्षशिला के तत्कालीन राजा आम्भी को हराकर अपने गुट में शामिल कर लिया। सिकंदर के भारत की तरफ बढ़ते पांवों ने तक्षशिला विश्वविद्यालय के एक आचार्य, कौटिल्य को चिंता में डाल दिया।
भारत की सीमाओं की रक्षा हेतु आचार्य कौटिल्य सम्राट धनानंद से सहायता की गुहार लगाने मगध पहुंचे जहां पर सम्राट द्वारा उनका अपमान किया गया। सम्राट के इस व्यवहार से खिन्न और मगध की प्रजा का हाल देख चर्या कौटिल्य ने यह प्रतिज्ञा ली, कि वे मगध की गद्दी से सम्राट धनानंद को पदच्युत कर एक नया साम्राज्य खड़ा करेंगे। सिकंदर ने पौरव राजा पोरस से झेलम में युद्ध किया, जिसका इतिहासकार कोई निश्चित परिणाम नहीं बताते हैं। परन्तु इसके बाद सिकंदर वापस यूनान लौट गया, जहाँ उसकी मृत्यु हो गयी।
मौर्य साम्राज्य का उदय :-
आचार्य कौटिल्य को एक ऐसे नवयुवक की तलाश थी, जिसकी धमनियों में वीरता का रक्त दौड़ता हो। उनकी ये तलाश चन्द्रगुप्त मौर्य पर जाकर समाप्त हुई। चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रारम्भिक जीवन के बारे में कोई ठोस जानकारी नहीं मिलती है। ये माना जाता है, कि चन्द्रगुप्त की माता का नाम मुरा था, जिससे मौर्य नाम आया।
कौटिल्य ने चन्द्रगुप्त को तक्षशिला विश्वविद्यालय में प्रशिक्षण दिया, और इसके साथ-साथ वे युद्ध में प्रवीण लड़ाकों की सेना बनाने लगे। चन्द्रगुप्त ने आचार्य कौटिल्य के साथ मिलकर अपनी सेना के साथ मगध पर आक्रमण कर दिया। विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य ने 322 ईसा पूर्व में मगध पर अधिकार कर लिया, एवं इस तरह मगध में मौर्य वंश की स्थापना हुई।
मौर्य साम्राज्य का विस्तार
सन 305 ईसा पूर्व में सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस निकेटर ने मगध पर आक्रमण कर दिया, लेकिन उसे पराजय ही हाथ लगी। अपनी हार के बाद संधि करते हुए सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलेना का विवाह चन्द्रगुप्त के साथ कर दिया। इसके साथ ही सेल्यूकस के अधिकार वाले विशाल क्षेत्र ( हेरात, मकरान, कंधार और काबुल ) का नियंत्रण चन्द्रगुप्त के पास चला गया। चन्द्रगुप्त के शासनकाल में मौर्य साम्राज्य आधे भारतीय महाद्वीप को अपने अधिकार में ले चुका था।
चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में जैन धर्म में दीक्षा ले ली। चन्द्रगुप्त के पश्चात उनके पुत्र बिन्दुसार राजगद्दी पर आसीन हुए। बिन्दुसार के बारे में अधिक साक्ष्य नहीं मिलते हैं, परन्तु उन्हें दक्षिण की तरफ मौर्य सीमाएं बढ़ाने के लिए श्रेय दिया जाता है।
मगध का सबसे अधिक विस्तार बिन्दुसार के पुत्र सम्राट अशोक के शासनकाल में हुआ। सम्राट अशोक को मौर्य साम्राज्य के सबसे प्रतापी राजा के तौर पर जाना जाता है। उन्हें देवानामपिय ( देवताओं के प्रिय ) और चक्रवर्ती की उपाधि दी गयी थी।
सम्राट अशोक का शासन काल :-
अशोक एक महत्वाकांक्षी एवं वीर राजा थे, जिन्होंने अपने 99 भाइयों की हत्या कर राजगद्दी प्राप्त की थी। राजगद्दी पर आसीन होते ही अशोक ने साम्राज्य विस्तार का कार्य शुरू कर दिया। अपने राज्याभिषेक के मात्र आठ वर्ष के अंदर ही अशोक के राज्य की सीमाएं भारतीय उपमहाद्वीप के सम्पूर्ण क्षेत्र के साथ-साथ पश्चिम में ईरान और पूर्व में इंडोनेशिया तक पहुँच गयी थीं। यह क्षेत्र अब तक का सबसे बड़ा भारतीय राज्यक्षेत्र माना जाता है।
साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ अशोक द्वारा प्रजा के लिए किया गया कार्य भी उल्लेखनीय है। मौर्य साम्राज्य प्रत्येक रूप में एक उन्नत राज्य था। बेहतर जल-निकासी व्यवस्थाओं, बांधों, उत्कृष्ट मापन प्रणाली, मुद्रा-विनिमय का उल्लेख अशोक के शिलालेखों में मिलता है।
सम्राट अशोक के पूरे शासनकाल में “कलिंग युद्ध" एक बहुत ही महत्वपूर्ण मोड़ लेकर आया, जिसने ना सिर्फ अशोक बल्कि पूरे मौर्य साम्राज्य की दिशा बदल दी। अशोक के तेरहवे अभिलेख के अनुसार, 262-61 ईसा पूर्व में सम्राट अशोक ने कलिंग राज्य के साथ युद्ध किया था। कलिंग वैश्विक रणनीति के हिसाब से अशोक के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था। कलिंग को महासागर का स्वामी कहा जाता था, एवं इस राज्य का व्यापार दक्षिण पूर्व के सुदूर देशों तक फैला हुआ था। अशोक इस व्यापार पर और समुद्री मार्ग पर अपना नियंत्रण चाहता था, जिसके लिए उसने कलिंग पर आक्रमण कर दिया था।
युद्ध का परिणाम और अशोक की धम्म नीति :-
कलिंग युद्ध का परिणाम बहुत ही विनाशकारी सिद्ध हुआ। इस युद्ध में सम्राट अशोक की विजय हुई थी, परन्तु यह जीत लाखों सैनिकों की मृत्यु की कीमत पर हासिल की गयी थी। कहा जाता है कि कलिंग के युद्ध में करीब एक लाख लोग मारे गए थे, एवं डेढ़ लाख लोगों को अशोक द्वारा बंधक बना लिया गया था। इस महाविनाश को देख अशोक ग्लानि से भर गया था। इतिहासकारों के अनुसार, सम्राट अशोक इस युद्ध से इतने विचलित हो गए, कि आजीवन युद्ध ना करने का फैसला लेते हुए बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया, और सत्य एवं अहिंसा की राह अपना ली। अशोक ने युद्ध नीति को त्यागकर धम्म नीति का अनुसरण प्रारम्भ कर दिया, एवं बौद्ध धर्म के प्रचार और प्रजा पालन में अपना बाकी शासन निकाल दिया।
सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र एवं पुत्री संघमित्रा को विभिन्न देशों में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भेजा, और स्वयं ने भारतवर्ष में बौद्ध विहारों एवं मठों का निर्माण करवाया। मध्यप्रदेश का साँची स्तूप और सारनाथ के बौद्ध विहार इसके महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। अशोक द्वारा सारनाथ में बनवाया गया अशोक स्तम्भ आज भारत का राजचिन्ह है, एवं अशोक की धम्मनीति से प्रभावित अशोक चक्र देश के राष्ट्रीय ध्वज पर अंकित है।
मौर्य साम्राज्य का पतन :-
सम्राट अशोक के बाद करीब दस मौर्य राजाओं ने मगध पर शासन संभाला, परन्तु कोई भी शासन को आगे बढ़ने एवं ठीक तरह से संभालने में सफल नहीं हो सका। अंतिम मौर्य राजा ब्रहद्रथ को उसके सेनापति, पुष्यमित्र शुंग ने पदच्युत करके मगध पर नियंत्रण कर लिया एवं शुंग वंश की स्थापना की। इतिहासकार मौर्य साम्राज्य के पतन के बहुत से कारण बताते हैं, जिनमें से प्रमुख कारण ये हैं -