नौशाद अली बचपन से ही संगीत-प्रेमी थे। उन्होंने अपने संगीत-प्रेम को जुनून की तरह जिया। उत्कट संगीत-प्रेम के कारण उन्होंने अपनी स्कूली पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी। भले ही वे पढ़े-लिखे नहीं थे, पर न जाने कितने लोगों ने उनकी सृजन प्रक्रिया पर शोध करके डाक्टरेट की उपाधि पायी है। वे अपने समय में फिल्म संगीत के निर्विवाद सम्राट थे।
नौशाद अली का जन्म उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में २६ दिसम्बर १९१९ को मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार में हुआ था। उन्होंने संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा उस्ताद यूसुफ अली से ली थी। जब वे मात्र १३ - १४ वर्ष के थे, उन्होंने लखनऊ की एक नाटक कम्पनी के गीतों को संवारकर सुरीला बनाया था। उन्हें इस कार्य से मिली शोहरत ने उनके अंदर संगीत के प्रति समर्पण पैदा किया। वे अपने अब्बा की अनिच्छा के बावजूद मुम्बई गए और लंबे संघर्ष के बाद फिल्म जगत में अपनी जगह बनाई। अनेकानेक परेशानियां और प्रतिकूल परिस्थितियां उनका हौंसला पस्त न कर सकीं। अन्ततः उनके दृढ़ निश्चय की जीत हुई और भवनानी प्रोडक्शन की फिल्म 'प्रेम नगर' (१९४०) में बतौर स्वतंत्र संगीतकार उन्हें मौका मिला।
नौशाद अली कितनी शिद्दत से गीतों को असरदार बनाते थे, इस सम्बन्ध में एक उदाहरण प्रायः चर्चा में सुना जाता है। फिल्म 'बैजू बावरा' के गीत 'ओ दुनिया के रखवाले....' की रिहर्सल के समय मुहम्मद रफी की आवाज में जो दर्द नौशाद चाहते थे, वह नहीं आ पा रहा था। तभी रिकार्डिंग स्टूडियो में रफी साहब को एक चिट्ठी मिली, जिसमें उनकी बीवी की तबीयत अचानक खराब होने की सूचना थी। चिट्ठी पाकर रफी साहब जाने लगे तो नौशाद ने कहा, "सिर्फ थोड़ी देर रुक जाओ। हम गीत रिकार्ड कर ही लेते हैं। अगर आज रिकॉर्ड नहीं हुआ तो इन साजिंदों का आज का पैसा डूब जाएगा।" भारी मन से रफी साहब मान गए और रिकार्डिंग हो गई। रिकार्डिंग के बाद जब रफी साहब जल्दबाजी में जाने लगे, तब नौशाद ने रहस्य खोला। वे बोले, “अरे मियां! कहां जा रहे हो? घर पर सब राजी-खुशी है। वह चिट्ठी तुम तक मैंने ही पहुंचाई थी। क्या करते यार, तुम्हारी आवाज़ में दर्द ही नहीं आ रहा था लेकिन बीवी की तबीयत की सूचना ने मेरा काम बना दिया।”
महान संगीतकार नौशाद उन बिरले संगीतकारों में से एक रहे हैं जिन्होंने पहले गीत लिखवाए और धुन बाद में बनाई। उनका मानना था कि अगर हम धुन पहले बना देंगे तो गीतकार अपना सर्वश्रेष्ठ नहीं दे पाएगा। नौशाद मृत्युपर्यन्त सृजनशील बने रहे। वे कहा करते थे, “भले ही मुझे अपार शौहरत मिल रही है लेकिन न जाने क्यों कुछ नया करने की ललक खत्म नहीं होती। जिस दिन यह ललक खत्म हो जाएगी, उस दिन मेरी जिंदगी के मायने क्या रह जाएंगे?”
नौशाद साहब ने दर्शकों के लिए भारतीय शास्त्रीय परम्परा के खजाने से ही संगीत को उठाया। 'रतन', 'अमर', 'बैजू बावरा' जैसी फिल्मों में जिन लोक धुनों को उन्होंने पिरोया, उससे उन्हें न केवल अलग पहचान मिली, बल्कि ये फिल्में सफल भी हुईं। नौशाद साहब ने संगीत को फिल्मों में महत्वपूर्ण दर्जा दिलवाया। संख्या के हिसाब से भले ही नौशाद ने कम फिल्मों में संगीत दिया हो परन्तु गुणवत्ता और महत्ता की दृष्टि से उनका योगदान सर्वोपरि है।
नौशाद साहब ने छह दशक के अपने फिल्मी जीवन में लगभग ७५ फिल्मों में संगीत दिया। १९५३ में प्रदर्शित फिल्म 'बैजू बावरा' के लिए नौशाद को फिल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के रूप में सम्मानित किया गया। भारतीय सिनेमा में उनके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए उन्हें १९८२ में 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' और २००४ में 'फिल्म फेयर स्वर्ण जयंती लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड' प्रदान किया गया। उन्होंने ०५ मई २००६ को हमेशा के लिए यह दुनिया छोड़ दी। मैं उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए यही कहूंगा कि -
"महारथी संगीत जगत के, तुम सदैव आओगे याद।
भुला न पाएंगे हम तुमको, युगों बाद भी, हे नौशाद!!"
@ महेश चन्द्र त्रिपाठी
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