पिछले कुछ वक्त से हमारे भारत में चल रही हर हवाएँ चुनाव का नाम अलाप रही है । चलती गरम हवाओं को देखकर लगता है जैसे चुनावी मुद्दे इन्हीं गर्म हवाओं की भाप में पक रहे हो । जो की हर जगह जनता को देवता बनाकर उसे रोजगार , विकास और मज़बूत आर्थिक स्थिति का भोग लगाते हुए इस देवता के भक्त बने नेता, देवता की पूजा कर रहे हर दूसरे भक्तों के ऊपर इस डर से बयानों के तीर चला रहे है की कही भगवान बनी आवाम वोटों का आशीर्वाद दूसरे भक्तों को ना दे दे ।
चुनावों के परिणाम जिस भगवान के हाथों है, उसके वोटों के ऊपर नज़रे गड़ाये बैठी राजनीतिक पार्टी, आवाम को खुश करने के लिए एड़ी छोटी का दम लगाते हुए पूरे भारत में रैलियाँ रूपी परिक्रमा कर रही है।
इन भक्तों और अल्पकाल के लिए भगवान बनी जनता को करीब से अनुभव करने की इच्छा से news channels की गलियों में घूमने की सोची । फिर लोकतंत्र के त्यौहार को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के सहारे देखने में मज़ा ही कुछ और है ।
ये एहसास होने में देर ना लगी की दुनिया में झूठ उतना नहीं, जितना मैंने सोचा था दुनिया उससे भी गहरे झूठ में डूबी है । कल सुबह के मुक़ाबले आज दुनिया के प्रति नज़रिया जितना बदला इतनी जल्दी मैंने आज तक कोई बदलाव नहीं देखे ।
दिल का एक कोना उन किताबों पर शक करने को कहता है जिसने बताया था नीति से बढ़कर कुछ नहीं । एक आँख से सच "कभी नहीं झुकता" पढ़ते-पढ़ते दूसरी आँख से सच को झुकते, गिरते और दम घोटकर मरते भी देख लिया ।
खैर केंद्र में सरकार किसी की भी बने अब पहले से कहीं अधिक सूचित रहना और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लगे रहना महत्वपूर्ण है।