क्या तुम नहीं जानते
क्या तुम नहीं जानते
पर्वतों के पीर को,
व्याकुल संसार के
संपन्न तस्वीर को।
क्या तुम नहीं जानते
जलती हवा के शरीर को ,
जो दोड रहा है गाड़ियों के
पीछे पाने अपने तकदीर को ।
क्या तुम नहीं जानते
पानी कि गरीबी को ,
जो मांग रहा साफ कपड़ा
मिटाने तन की फकीरों को ।
क्या तुम नहीं जानते
आसमान के काले रंग को ,
जो ढूंढ रहा है नीला सूरज
बुला रहा है अपने पतंग को।
क्या तुम नहीं जानते
कमजोरी से कापते शरीर को ,
शुद्ध अनाज और अशुद्ध अनाज
के बीच मिटाना चाहता लकीर को।
बिंदेश कुमार झा
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