डायरी

कोरा कागज़

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22 Jun '24
1 min read


भीतर डायरी के रहतीं हैं

शिगाफ़ लगी हुई  यादें भीनी-भीनी


 

चुम्बकीय चुप्पी

गल्पें आधी-अधुरी

सिंदूरी सुबह कि रंगत

ढ़लते शाम कि नज़ाकत भी...


 

इक-इक दिन का हिसाब

कईं-कई रातें मोम कि-सी जलती हुई

थोड़े एब, शिकवे-शिक़ायतों की गठरी


 

कुछ कही गुजरी.. 

कुछ-कुछ भुली बिसरी..

रहतीं हैं डायरी के पृष्ठों पर..

स्याही-सी लगी हुई !

Category:Poetry



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Written by vishvash gaur

हम हमेशा पृथ्वी के दो ध्रुवों की तरह रहे एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत जो कभी मिल नही सकते पर उनका होना जरूरी है संतुलन के लिए कभी मांगा ही नही एक दूसरे को एक दूसरे से ना ही ईश्वर से अब वो ही जाने उसने क्यों हमें एक दूसरे के इतना समांतर रख दिया जो साथ चल तो सकते हैं पर हाथ थाम कर नहीं