भीतर डायरी के रहतीं हैं
शिगाफ़ लगी हुई यादें भीनी-भीनी
चुम्बकीय चुप्पी
गल्पें आधी-अधुरी
सिंदूरी सुबह कि रंगत
ढ़लते शाम कि नज़ाकत भी...
इक-इक दिन का हिसाब
कईं-कई रातें मोम कि-सी जलती हुई
थोड़े एब, शिकवे-शिक़ायतों की गठरी
कुछ कही गुजरी..
कुछ-कुछ भुली बिसरी..
रहतीं हैं डायरी के पृष्ठों पर..
स्याही-सी लगी हुई !
हम हमेशा पृथ्वी के दो ध्रुवों की तरह रहे एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत जो कभी मिल नही सकते पर उनका होना जरूरी है संतुलन के लिए कभी मांगा ही नही एक दूसरे को एक दूसरे से ना ही ईश्वर से अब वो ही जाने उसने क्यों हमें एक दूसरे के इतना समांतर रख दिया जो साथ चल तो सकते हैं पर हाथ थाम कर नहीं