मन जब कुछ पाना चाहे और वह चाहत पूरी न हो या जो कुछ हमारे पास है उसके चले जाने का डर सताए अथवा किसी कार्य की सफलता में अनपेक्षित विलम्ब होने लगे, तो मन परेशान हो जाता है । इस परेशानी को चिन्ता कहते हैं। इसमें मन व बुद्धि अशांत हो जाते हैं, चित्त अपनी सामान्य स्थिति से नीचे आने लगता है और ऊर्जा अधोमुखी होकर बहने लगती है।
चिन्ता सर्वव्यापक रोग है। इसकी प्रवृत्ति दुखमूलक है। आज अखिल विश्व चिन्ता रूपी आग में जल रहा है। किसी को धन कमाने की चिन्ता है, किसी को सन्तान न होने की चिन्ता है, कोई सन्तान के दुर्व्यवहार से चिन्ता में है, किसी को पुत्री के विवाह की चिन्ता है और किसी को विधवा बहू के भविष्य की चिन्ता। व्यापारी व्यापार से, किसान खेती से और विद्यार्थी पढ़ाई से सम्बन्धित परेशानियों से चिन्तित हैं। बच्चे-बूढ़े, स्त्री-पुरुष, अमीर-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित सभी चिन्ता के शिकार हैं।
चिन्ता दीमक की तरह भीतर ही भीतर मनुष्य को खाती रहती है। चिन्ता रूपी नागिन ज्ञान और विश्वास के अमृत का नाश करके मनुष्य के भीतर अज्ञान और अविश्वास का विष भर देती है। छायावाद के शीर्षस्थ कवि जयशंकर प्रसाद ने "कामायनी" में इसे 'विश्व वन की व्याली', 'अभाव की चपल बालिका', 'तरल गरल की लघु लहरी', 'व्याधि की सूत्रधारिणी', 'हृदय गगन में धूमकेतु-सी' आदि उपमाओं से उपमायित किया है। उनके अनुसार इसमें कर्म सम्बन्धी कोई प्रेरणा नहीं पायी जाती।
चिन्ता में चेतनता है, पश्चाताप है, व्याकुलता है; लेकिन यही चिन्ता जब चिन्तन में परिणत हो जाती है तो कर्म-बीज बन जाती है और मानव की प्रगति में सहायक होती है। जो योगी हैं, जिन्होंने सब कुछ त्याग दिया है; संसार जिनके वास्ते असार है, उन्होंने यह स्वीकार किया है कि यदि वे आत्मचिन्तन न करें, तो उन्हें योगी कौन कहेगा?
जब मन में किसी विचार के मनन से एकाग्रता, शान्ति, उत्साह और प्रेम का भाव पैदा होने लगे, तो उसे चिन्तन कहते हैं। इसमें मन व बुद्धि सूक्ष्म होने लगती है और चित्त अपनी सामान्य अवस्था से ऊपर उठकर ऊर्ध्वगामी होने लगता है। गुरु के वचनों व शास्त्रों के गूढ़ रहस्यों को खोलने के लिए जब हम मनन करते हैं, तो वह भी चिन्तन ही होता है।
चिन्ता और चिन्तन में नकारात्मक और सकारात्मक दृष्टिकोण का ही अन्तर है। दृष्टि जब सकारात्मक होती है तो हम हर बात में अच्छाई खोजते हैं, जिससे विचारों में खुलापन आता है और आगे बढ़ने के नये-नये रास्ते खुलते हैं। यही सकारात्मक सोच चिन्तन कहलाती है। इसके विपरीत दृष्टि नकारात्मक हो तो हम हर बात में बुराई खोजते हैं, भले ही वह बात हमारे हित में ही क्यों न हो। यह नकारात्मक दृष्टि ही चिन्ता को जन्म देती है।
अतः अगर चिन्तामुक्त जीवन जीना है तो हमें अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक बनाना होगा, अपनी दिनानुदिन बढ़ती कामनाओं को कम करना होगा और अपने जीवन में आध्यात्मिकता का समावेश कर चिन्तन को प्राथमिकता देनी होगी। जितना चिन्तन बढ़ेगा, उतनी ही चिन्ता घटती जाएगी। चिन्तन हमें जीवन जीने की कला सिखाता है और चिन्ता हमें निराशा के अंधकूप में ढकेलती है। सदैव याद रखें यह सारगर्भित सूत्र -
" चिन्तन कर, चिन्ता नहीं, रहकर सदा सचेत ।
चिता रहति निर्जीव महॅं, चिन्ता जीव समेत ।।"
- महेश चन्द्र त्रिपाठी
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