जिस घर के शिद्दत से निभाते रहे किरदार हम,
उसी घर के ही नहीं रहे अब कोई हकदार हम...
परायों को दिल से अपनाता नहीं कभी कोई,
अपनाने की उन्हें भूल कर बैठे हे बार बार हम...
उम्रभर दर्द समेटते रहे तो वो समझ बैठे हमें,
दर्द खरीदनेवाले हो जैसे बडे़ खरिददार हम...
अपना समझकर जिस घरको सँवारते रहे हम
पता चला उस घरके सिर्फ़ थे किरायादार हम...
छोड़ दिया तुम्हें तुम्हारी अपनी खुशी के लिए,
उन्हें बताना जरुर कितने बडे़ थे वफादार हम...
तेरी एक आँसू ने तड़पने पर मजबूर किया हे
किसे कैसे कहे फँस गये हे बीच मझदार हम...