चन्द ख्वाव चंद उम्मीदें लिए फिरता हूँ
समुन्दर से आसमाँ का पता पूछ लिया करता हूँ
रात अमावस की कितनी भी काली हो
खुद अँधेरों में जी लिया करता हूँ
चोट खाकर लगाईं उम्मीदें
खुद ही जख्मों को सी लिया करता हूँ
आँधियों की इस बस्ती में
खुद की हस्ती बना लिया करता हूँ
आसमाँ की बुलन्दी पर
खुद नजरें जमा लिया करता हूँ
इम्तिहाँ को सफर में
खुद की ताकत बना लिया करता हूँ
फैसले को खुद की फिर
नैमत बना लिया करता हूँ
पं संजय शर्मा 'आक्रोश'
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