समझदार लड्डु

कहानी- समझदार लड्डू

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22 Jun '24
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लड्डू

| कहानी - रवि पाटीदार |

"वाह! लड्डू जीत गया।" "नहीं नहीं मैं नहीं अतुल

भैया जीते हैं।" अतुल भी जोर-जोर से उछलने लगा

खुशी के मारे अक्सर ही वह फुटबाल के जैसे उछलने

लगता है फिर उसे खिलखिलाते देख लड्डू भी दोनों हाथों

से ताली पीटते-पीटते उछलने लगा। उन दोनों को

उछलते देख फिरकी भी उछलने लगी, पर अभी भी वो

लगातार ताली पीटते हुए बोले जा रही थी, "लड्डू जीत

गया, लड्डू जीत गया।" अतुल अपनी धुन में "मैं जीत

गया, मैं जीत गया" चिल्लाते चिल्लाते उछल रहा था।

"हट झूठे तू थोड़े ही जीता है।" अपनी बाल सुलभ

मुस्कान के साथ फिरकी बोली, लड्डू ने झट से उसके मुँह

को अपनी हथेलियों से ढँक उसे चुप कराते हुए कहा "तू

चुप कर ज्यादा बक-बक मत कर। अतुल भैया हमेशा

जीतते हैं, है न भैया?" रौब से सीना फुलाते हुए अतुल

बोला “हाँ ऽऽऽऽआ।”

जिससे फिरकी चिढ़ गई, "ऊंह" कर उसने मुँह

फेर लिया। शोर सुनकर दादी माँ भी बाहर आ गई, उन्होंने

भी अतुल को अपने अंक में जकड़ कर कहा "अरे वाह,

मेरा लाडेसर जीत गया।" फिरकी पुनः शिकायती अंदाज

में बोली “दादी माँ, लड्डू जीता है।”

"चल हट," दादी माँ, ने ‘बड़ी आई वकीलनी’

कह कर उसे दूर धकेल दिया और आदेशात्मक स्वर में

बोली "ज्यादा वकालात झाड़ने की कोशिश मत कर।

यहाँ से नौ दो ग्यारह हो जा। ज्यादा पंचायत करेगी तो घर

में घुसने नहीं दूंगी।" फिरकी बेचारी कसमसा कर रह गई।

अतुल भैया दादी माँ के साथ अंदर चले गए।

फिरकी और लड्डू भी बरामदे से बाहर के दरवाजे की ओर

चल दिए।

लड्डू अपनी मस्ती में चला जा रहा था। मानों कुछ

हुआ ही नहीं और फिरकी को अतुल, लड्डू और दादी माँ

पर गुस्सा आ रहा था। वह दादी माँ से सबसे ज्यादा गुस्सा

थी। फिर लड्डू पर उसके बाद अतुल पर मगर बेचारी मुँह

फुलाए चलने के अलावा कुछ और न कर पाई।

''आह... कितनी सुन्दर तितली", लड्डू गुलाब

के फूल पर बैठी तितली की ओर देखते हुए बोला।

"मुझे नहीं देखना..." फिरकी मुँह फुलाए बोली।

जबकि वह सारा दिन तितलियों के पीछे दौड़ती रहती है।

“अरे पागल देख ले कितने पास बैठी है तेरे।”

"मुझे नहीं देखना, और पागल किसे बोला? पागल

तो तू हैं जीते भी हार मान लेता है और हँसता रहता है

और वह दादी माँ...ऐसी होती है दादी?" फिरकी को

गुलाब पर बैठी तितली के बजाय थोड़ी देर पहले हुई

घटना दिखाई दे रही थी। लड्डू पर तो उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ था।

"मैं और पागल ? जा जा अब मैं आठ साल का हो

गया हूँ, तेरे से अधिक बुद्धिमान भी, तेरे में तो कोई बुद्धि

नहीं है। लड्डू गुलाब के गमले के पास वाली तिपाई पर

बैठते हुए बोला।

"

'आ बैठ, तुझे भी समझाता हूँ। मेरी माँ इस बंगले में

झाडू-पोछा, बर्तन कपड़े धोने का काम करती है। मैं तो

वैसे ही माँ के साथ आ जाता हूँ। अतुल भैया के पास ढेर

सारे सुन्दर सुन्दर खिलौने हैं। उनके पिताजी आए दिन

नए नए ढेर सारे सुन्दर-सुन्दर खिलौने लाते रहते हैं।

अतुल भैया कितने अच्छे हैं। मुझे भी साथ खेलना बहुत

अच्छा लगता है। मेरे पास तो एक भी खिलौना नहीं है।

इसलिए मैं यही खेलता हूँ। पर जब भी अतुल भैया खेल में

हार जाते हैं तो उनको बहुत बुरा लगता है। तो उसी समय

खेल छोड़कर सारे खिलौने समेट कर अंदर कमरे में चले

जाते हैं उदास हो कर।

तब मैं अकेला बरामदे में बैठा रह जाता हूँ। माँ सारा

काम समाप्त करके आए, तब तक मुझे यहाँ अकेला बैठना पड़ता है।

इससे तो अच्छा है ना? भैया कभी भी हारे नहीं और

हमारा खेल चलता रहे। इसलिए मैं हार जाता हूँ। भैया

खुश हो जाते हैं और खेल दोबारा शुरु हो जाता है और

मुझे माँ के काम समाप्त करने की प्रतीक्षा भी नहीं करना

पड़ती। घर के काम समाप्त होने के बाद भैया की माँ

कभी-कभी कुछ खाने को भी दे देती है। बोलती है 'ले रे

लड्डू तू भी लड्डू ले ले रे। प्रसाद है दोनों हाथ एक साथ

मिला के आगे कर। देख प्रसाद है नीचे एक भी दाना गिरना

नहीं चाहिए।'

पता है, वो सबको लड्डु का टुकड़ा प्रसाद बोल कर

देती है। पर मुझे हँसते हँसते लड्डू बोलती है तो मुझे भी

बहुत अच्छा लगता है। खाने में भी वह बहुत अच्छा स्वाद

का होता है। यहाँ तो मेरे मजे ही मजे हैं। तू नहीं समझेगी।

पर मैं तो बहुत समझदार हूंँ |

                 The end

 

Category:Stories



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Written by Ravindra patidar

Student