तुम चाँदनी थे, धूप थे
चिर नव्य भव्य अनूप थे
तुम थे माँ वाणी के सपूत, विद्वान मनस्वी ज्ञानी
तुम हर बाधा से टकराए, तुमने हार न मानी
लेकर सबको साथ, किया जो कुछ करने की ठानी
छलनी नहीं, तुम सूप थे।
जीत, छल-कपट से लेने को कभी न थे तुम राजी
भेद न था कथनी करनी में, तुम जीते हर बाजी
याद तुम्हारी सदा रहेगी मानस-पट पर ताजी
तुम नीति के प्रतिरूप थे।
अटल इरादे के वाहक बन कीर्ति अकूत कमाई
तुमसे कुछ पाने को जनता रहती थी ललचाई
बहुतों ने देखा, बहुतों की तुमनें प्यास बुझाई
तुम सिन्धुवत् जल-कूप थे।
तुमने विरुदावलि सदैव अपनी संस्कृति की गायी
तुमने ख्याति देश की सारी दुनिया में फैलायी
अपनी प्रतिभा के बल पर अपनी पहचान बनायी
तुम रंक होकर भूप थे।
राजनीति में अटल रहे, तुम काव्य-गगन में विहरे
मान बढ़ाने हेतु देश का, सारे जग में विचरे
बढ़ती जाए कीर्ति-कौमुदी बिना एक क्षण ठहरे
माँ भारती के पूत थे ।
© महेश चन्द्र त्रिपाठी
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