अपने ही अस्तित्व की तालाश में
इधर उधर भटकती रही
ना ही मंजिल मिली और ना ही ठिकाना
सोचा था जमाने से लड़ जाऊंगी पर
ना ही अपने मिले और ना ही कोई सहारा
अब ना ही जीने की तमन्ना रही
और ना ही कुछ पाने की सभी सपने
टूट कर बिखर गए
जब पहली बार अपने ससुराल आई
ना ही सास ससुर ने बेटी माना और
ना ही पति का प्यार मिला
आदर्श पत्नी ,आदर्श बहू ,आदर्श मां ,
बनने के सफर में अपने आप को
ही भूल गई , अपना अस्तित्व ही भूल गई
भूल ही गई की जीना क्या होता हैं
परिवार की जिम्मेदारियों में ना जानें कब
जिम्मेदार हो गई
सब कुछ पास होते हुए भी मेरे पासकुछ
नही था
सभी रिश्ते नाते सब झूठ का लिबाज
पहन कर बैठे हुए थे
घर वालो को बस बहु , पत्नी , मां, भाभी
चाहिए थी किसी ने कभी समझा ही नहीं
कि मुझे क्या चाहिए था
सभी को खुश करने की कोशिश में हंसना ही
भूल गई
रिश्ते निभाते निभाते अपने आप को ही भूल गई
हां ये सच है में रिश्ते निभाते निभाते अपनी पहचान
अपना अस्तित्व ही भूल गई ।
0 Followers
0 Following